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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 103

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 103/ मन्त्र 3
    सूक्त - भर्गः देवता - अग्निः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-१०३

    अच्छा॒ हि त्वा॑ सहसः सूनो अङ्गिरः॒ स्रुच॒श्चर॑न्त्यध्व॒रे। ऊ॒र्जो नपा॑तं घृ॒तके॑शमीमहे॒ऽग्निं य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । हि । त्वा॒ । स॒ह॒स॒: । सू॒नो॒ इति॑ । अ॒ङ्गि॒र॒: । स्रुच॑: । चर॑न्ति । अ॒ध्व॒रे ॥ ऊ॒र्ज: । नपा॑तम् । घृ॒तऽके॑शम् । ई॒म॒हे॒ । अ॒ग्निम् । य॒ज्ञेषु॑ । पू॒र्व्यम् ॥१०३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा हि त्वा सहसः सूनो अङ्गिरः स्रुचश्चरन्त्यध्वरे। ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । हि । त्वा । सहस: । सूनो इति । अङ्गिर: । स्रुच: । चरन्ति । अध्वरे ॥ ऊर्ज: । नपातम् । घृतऽकेशम् । ईमहे । अग्निम् । यज्ञेषु । पूर्व्यम् ॥१०३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 103; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (सहसः सूनो) = बल के पुजीप्रभो! हे (अंगिरः) = सर्वत्र गतिवाले प्रभो! इस अध्वरे-जीवन यज्ञ में त्रुच:-[वाग वै सुक् श० ६.३.१.८] ज्ञान की वाणियाँ हि-निश्चय से त्वा अच्छा-आप की ओर चरन्ति-गतिवाली हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ हमें आपके समीप प्राप्त कराती हैं । २. हम (यज्ञेषु) = यज्ञों में उस प्रभु को ईमहे-आराधित करते हैं-स्तुत करते हैं, जो ऊर्ज: नपातम्-शक्ति को न गिरने देनेवाले हैं, घृतकेशम्-दीस ज्ञान की रश्मियोंवाले हैं। अग्निम्-अग्रणी हैं और पूर्व्यम्-पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम हैं।

    भावार्थ - इस जीवन-यज्ञ में हम ज्ञान प्राप्त करते हुए प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराएँगे और ज्ञानदीति देंगे। पवित्र प्रभु का अतिथि बननेवाला 'मेध्यातिथि' अगले सक्त के १-२ मन्त्रों का ऋषि है तथा 'नृमेध' [सबके साथ मिलकर चलनेवाला] ३-४ का।

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