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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
इ॒मा उ॑ त्वा पुरूवसो॒ गिरो॑ वर्धन्तु॒ या मम॑। पा॑व॒कव॑र्णाः॒ शुच॑यो विप॒श्चितो॒ऽभि स्तोमै॑रनूषत ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा: । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । गिर॑: । व॒र्ध॒न्तु॒ । या । मम॑ । पा॒व॒कऽव॑र्णा: । शुच॑य: । वि॒प॒:ऽचित॑: । अ॒भि। स्तोमै॑: । अ॒नू॒ष॒त॒ ॥१०४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ त्वा पुरूवसो गिरो वर्धन्तु या मम। पावकवर्णाः शुचयो विपश्चितोऽभि स्तोमैरनूषत ॥
स्वर रहित पद पाठइमा: । ऊं इति । त्वा । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । गिर: । वर्धन्तु । या । मम । पावकऽवर्णा: । शुचय: । विप:ऽचित: । अभि। स्तोमै: । अनूषत ॥१०४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 104; मन्त्र » 1
विषय - पावकवर्णाः शुचयः विपश्चित:
पदार्थ -
१. हे (पुरूवसो) = पालक व पूरक वसुओं-[धनों]-वाले प्रभो। (इमाः याः मम गिर:) = ये जो मेरी वाणियों हैं, वे (उ) = निश्चय से (त्वा वर्धन्तु) = आपका वर्धन करनेवाली हों। हम सदा आपका ही स्तवन करें। २. (पावकवर्णा:) = अग्नि के समान वर्णवाले-तेजस्वी (शुचय:) = पवित्र मनोंवाले, (विपश्चित:) = ज्ञानी पुरुष ही (स्तोमैः) = स्तुतियों के द्वारा आपका (अभि अनूषत) = प्रात:-सायं [दिन के दोनों ओर] स्तवन करते हैं। वस्तुत: आपके स्तवन से ही वे 'पावकवर्ण, शुचि व विपश्चित्' बनते हैं।
भावार्थ - हम सदा प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें शरीरों में अग्नि के समान तेजस्वी, मनों में पवित्र व मस्तिष्क में ज्ञानोज्ज्वल बनाएगा।
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