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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 104/ मन्त्र 2
अ॒यं स॒हस्र॒मृषि॑भिः॒ सह॑स्कृतः समु॒द्र इ॑व पप्रथे। स॒त्यः सो अ॑स्य महि॒मा गृ॑णे॒ शवो॑ य॒ज्ञेषु॑ विप्र॒राज्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स॒हस्र॑म् । ऋषि॑ऽभि: । सह॑:ऽकृत: । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । प॒प्र॒थे॒ ॥ स॒त्य: । स: । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । गृ॒णे॒ । शव॑: । य॒ज्ञेषु॑ । वि॒प्र॒ऽराज्ये॑ ॥१०४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे। सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । सहस्रम् । ऋषिऽभि: । सह:ऽकृत: । समुद्र:ऽइव । पप्रथे ॥ सत्य: । स: । अस्य । महिमा । गृणे । शव: । यज्ञेषु । विप्रऽराज्ये ॥१०४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 104; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञेषु-विप्रराज्ये
पदार्थ -
१. (अयम्) = ये प्रभु (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (सहस्त्रम्) = आनन्दपूर्वक (सहस्कत:) = अपना बल बनाया जाता है, अर्थात् ऋषि लोग प्रभु को हृदयों में धारण करते हुए प्रभु के बल से अपने को बल-सम्पन्न बनाते हैं। ये प्रभु (समुद्रः इव) = समुद्र के समान (पप्रथे) = विस्तृत हैं। समुद्र अनन्त सा प्रतीत होता है-प्रभु हैं ही अनन्त । २. (सः) = वह (अस्य) = इसकी (महिमा) = महिमा (सत्यः) = सत्य है कि (यज्ञेषु) = यज्ञों और (विप्रराज्ये) = ज्ञानियों के राज्य में (शवः गृणे) = इस प्रभु के बल का स्तवन होता है। वे प्रभु स्तुत्य बलवाले हैं। प्रभु का यह बल यज्ञों व ज्ञानयज्ञों का रक्षण करता है।
भावार्थ - ऋषि प्रभु को ही अपना बल बनाते हैं। प्रभु सर्वव्यापक हैं। प्रभु के बल का सर्वत्र यज्ञों में व ज्ञानयज्ञों में स्तवन होता है।
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