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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 106

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 106/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-१०६

    त्वां विष्णु॑र्बृ॒हन्क्षयो॑ मि॒त्रो गृ॑णाति॒ वरु॑णः। त्वां शर्धो॑ मद॒त्यनु॒ मारु॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । विष्णु॑: । बृ॒हन्‌ । क्षय॑: । मि॒त्र । गृ॒णा॒ति॒ । वरु॑ण: ॥ त्वाम् । शर्ध॑: । म॒द॒ति॒ । अनु॑ । मारु॑तम् ॥१०६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां विष्णुर्बृहन्क्षयो मित्रो गृणाति वरुणः। त्वां शर्धो मदत्यनु मारुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । विष्णु: । बृहन्‌ । क्षय: । मित्र । गृणाति । वरुण: ॥ त्वाम् । शर्ध: । मदति । अनु । मारुतम् ॥१०६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 106; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! वास्तव में (त्वाम्) = आपका (गणाति) = स्तवन वही करता है जोकि (विष्णु:) = व्यापक व उदारवृत्तिवाला बनता है, (बृहन्) = अपनी शक्तियों का वर्धन करता है, (क्षय:) = उत्तम निवास व गतिवाला बनता है 'क्षि निवासगत्योः' (मित्र:) = सबके प्रति स्नेहवाला होता है और (वरुण:) = द्वेष का निवारण करनेवाला होता है। प्रभु का वास्तविक स्तवन तो यही है कि हम इसप्रकार के जीवनवाले बनें। २. हे प्रभो। (त्वाम्) = आपकी (अनु) = अनुकूलता करता हुआ यह (मारुतं शर्ध:) = प्राणों का बल (मदति) = [मादयति]-आनन्द का अनुभव कराता है। प्राणसाधना से चित्तवृत्ति की एकाग्रता होकर प्रभु में प्रीति बढ़ती है, तब एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है।

    भावार्थ - प्रभु का उपासक 'विष्णु, बृहत, क्षय, मित्र व वरुण' बनने का प्रयत्न करता है। यह प्राणसाधना करता हुआ, चित्तवृत्ति की एकाग्रता के द्वारा, प्रभु-प्रासि का आनन्द पाता है। _ यह उपासक प्रभु का प्रिय 'वत्स' बनता है। यह अगले सूक्त में १-३ का ऋषि है। खुब ज्ञान के प्रकाशवाला 'बृहद् दिवः' कहलाता है। यह ४-१२ मन्त्रों तक का ऋषि है १३-१४ का ब्रह्मा और वासनाओं का पूर्ण संहार करनेवाला 'कुत्स' १५ मन्त्र का ऋषि है -

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