Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-१०६
तव॒ त्यदि॑न्द्रि॒यं बृ॒हत्तव॒ शुष्म॑मु॒त क्रतु॑म्। वज्रं॑ शिशाति धि॒षणा॒ वरे॑ण्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्यत् । इ॒न्द्रि॒यम् । बृ॒हत् । तव॑ । शुष्म॑म् । उ॒त । क्रतु॑म् ॥ वज्र॑म् । शि॒शा॒ति॒ । धि॒षणा॑ । वरे॑ण्यम् ॥१०६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्यदिन्द्रियं बृहत्तव शुष्ममुत क्रतुम्। वज्रं शिशाति धिषणा वरेण्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठतव । त्यत् । इन्द्रियम् । बृहत् । तव । शुष्मम् । उत । क्रतुम् ॥ वज्रम् । शिशाति । धिषणा । वरेण्यम् ॥१०६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 106; मन्त्र » 1
विषय - शुष्म-क्रतु-वज्र-इन्द्रिय
पदार्थ -
१. हे उपासक! (तव) = तेरी (धिषणा) = यह स्तुति (त्यत्) = उस (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को (शिशाति) = तीक्ष्ण करती है (उत) = और यह स्तुति (तव) = तेरे (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (शुष्मम्) = शत्रु शोषक बल को और (क्रतम्) = प्रज्ञान को बढ़ाती है। २. 'इन्द्रियशक्ति, शत्रुशोषक बल व प्रज्ञान' का वर्धन करती हुई यह स्तुति (वरेण्यम्) = वरणीय-चाहने योग्य (वज्रम्) = क्रियाशीलता को बढ़ानेवाली होती है।
भावार्थ - प्रभु-स्तवन से हमारा जीवन 'शक्ति, ज्ञान व क्रियाशीलता' वाला होता है। यह स्तुति हमारी इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करती है।
इस भाष्य को एडिट करें