अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 105/ मन्त्र 5
इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑। हस्ता॑य॒ वज्रः॒ प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । तम् । शु॒म्भ॒ । पु॒रु॒ऽह॒न्म॒न् । अव॑से । यस्य॑ । द्वि॒ता । वि॒ऽध॒र्तरि॑ ॥ हस्ता॑य । वज्र॑: । प्रति॑ । धा॒यि॒ । द॒र्श॒त: । म॒ह: । दि॒वे । न । सूर्य॑: ॥१०५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं तं शुम्भ पुरुहन्मन्नवसे यस्य द्विता विधर्तरि। हस्ताय वज्रः प्रति धायि दर्शतो महो दिवे न सूर्यः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । तम् । शुम्भ । पुरुऽहन्मन् । अवसे । यस्य । द्विता । विऽधर्तरि ॥ हस्ताय । वज्र: । प्रति । धायि । दर्शत: । मह: । दिवे । न । सूर्य: ॥१०५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 105; मन्त्र » 5
विषय - वज्रः-सूर्यः
पदार्थ -
१.हे (पुरुहन्मन्) = शत्रुओं का खूब ही हनन करनेवाले जीव। तू (तम्) = उस (इन्द्रम्) = शत्रु विद्रावक प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिए (शुम्भ) = अपने जीवन में अलंकृत कर । उस प्रभु को अलंकृत कर (यस्य) = जिसके (द्विता) = दोनों का विस्तार है-उस प्रभु की शक्ति भी अनन्त विस्तारवाली है और ज्ञान भी। प्रभु को धारण करने पर हम भी ज्ञान व शक्ति प्राप्त करेंगे। २. उस (विधर्तरि) = विशेषरूप से धारण करनेवाले प्रभु में (हस्ताय) = [हननाय]-शत्रु-संहार के लिए (दर्शतः) = दर्शनीय (महः) = महान् (वज्रः) = वन (प्रतिधायि) = धारण किया जाता है (न) = [चार्थे] और (दिवे:) = प्रकाश के लिए (सूर्य:) = सूर्य धारण किया जाता है। 'वा'शत्रु-संहार की शक्ति का प्रतीक है और 'सूर्य' ज्ञान का।
भावार्थ - हम अपने जीवनों में प्रभु का धारण करें। प्रभु शत्रुहनन के लिए वन का धारण करते हैं और प्रकाश के लिए सूर्य का। प्रभु का धारण हमें शक्ति व प्रकाश प्राप्त कराएगा। ज्ञान के धारण करनेवाले हम 'गोधूक्ति' बनेंगे, अर्थात् हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तम ही कथन करेंगी तथा शक्ति को धारण करनेवाले हम अश्वसूक्ति होंगे। ये ही अगले सूक्त के ऋषि -
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