अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
त्वमि॑न्द्र॒ प्रतू॑र्तिष्व॒भि विश्वा॑ असि॒ स्पृधः॑। अ॑शस्ति॒हा ज॑नि॒ता वि॑श्व॒तूर॑सि॒ त्वं तू॑र्य तरुष्य॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । प्रऽतू॑र्तिषु । अ॒भि । विश्वा॑: । अ॒सि॒ । स्पृध॑: ॥ अ॒श॒स्ति॒ऽहा । ज॒नि॒ता । वि॒श्व॒ऽतू: । अ॒सि॒ । त्वम् । तू॒र्य॒ । त॒रु॒ष्य॒त: ॥१०५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि विश्वा असि स्पृधः। अशस्तिहा जनिता विश्वतूरसि त्वं तूर्य तरुष्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । प्रऽतूर्तिषु । अभि । विश्वा: । असि । स्पृध: ॥ अशस्तिऽहा । जनिता । विश्वऽतू: । असि । त्वम् । तूर्य । तरुष्यत: ॥१०५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 105; मन्त्र » 1
विषय - अशस्तिहा-विश्वतूः
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (प्रतूर्तिषु) = संग्रामों में (विश्वाः) = सब (स्पृध:) = स्पर्धाकारिणी शत्रुसेनाओं को (अभि असि) = अभिभूत करनेवाले हैं। २. आप (अशस्तिहा) = इन शत्रुओं से की जानेवाली हिंसाओं के हन्ता हैं। (जनिता) = इन शत्रुओं की हिंसा को पैदा करनेवाले हैं। हमें शत्रुओं के हिंसन के योग्य बनाते हैं। हमें इनसे हिंसित नहीं होने देते। (विश्वतः असि) = सब शत्रुओं का हिंसन करनेवाले आप ही हैं। (त्वम्) = आप ही (तरुष्यत:) = हिंसन करनेवालों को (तूर्य) = विनष्ट कीजिए।
भावार्थ - प्रभु ही संग्नामों में हमारे शत्रुओं का पराभव करते हैं। सब हिंसकों का हिंसन प्रभु ही करते हैं।
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