अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 105/ मन्त्र 4
यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः। विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥
स्वर सहित पद पाठय: । राजा॑ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । याता॑ । रथे॑भि: । अध्रि॑ऽगु: ॥ विश्वा॑साम् । त॒रु॒ता । पृत॑नानाम् । ज्येष्ठ॑: । य: । वृ॒त्र॒ऽहा । गृ॒णे ॥१०५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यो राजा चर्षणीनां याता रथेभिरध्रिगुः। विश्वासां तरुता पृतनानां ज्येष्ठो यो वृत्रहा गृणे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । राजा । चर्षणीनाम् । याता । रथेभि: । अध्रिऽगु: ॥ विश्वासाम् । तरुता । पृतनानाम् । ज्येष्ठ: । य: । वृत्रऽहा । गृणे ॥१०५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 105; मन्त्र » 4
विषय - "ज्येष्ठ वृत्रहा' प्रभु
पदार्थ -
१. मैं उस प्रभु का (गणे) = स्तवन करता हूँ (य:) = जोकि (चर्षणीनां राजा) = श्रमशील मनुष्यों के जीवन को दीप्त बनानेवाला है। (रथेभिः याता) = शरीररूप रथों से प्राप्त होनेवाला है, अर्थात् शरीररूप उत्तम रथों को हमारे लिए देते हैं। (अधिगः) = अधूतगमनवाला है-प्रभु को अपने कार्यों में कोई विहत नहीं कर पाता। २. ये प्रभु ही (विश्वासाम्) = सब (पृतनानाम्) = शत्रुसैन्यों के तरुता तैर जानेवाले है। सब शत्रुओं से वे प्रभु हमें पार करनेवाले हैं। वे प्रभु (ज्येष्ठः) = प्रशस्यतम हैं (यः) = जो (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ - प्रभु ही हमें उत्तम शरीर-रथ प्राप्त कराते हैं और हमारे जीवनों को दीस करते हैं।
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