Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
यत्सोम॑मिन्द्र॒ विष्ण॑वि॒ यद्वा॑ घ त्रि॒त आ॒प्त्ये। यद्वा॑ म॒रुत्सु॒ मन्द॑से॒ समिन्दु॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । विष्ण॑वि । यत् ॥ वा॒ । घ॒ । त्रि॒ते । आ॒प्त्ये ॥ यत् । वा॒ । म॒रुत्ऽसु॑ । मन्द॑से । सम् । इन्दु॑ऽभि: ॥१११.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये। यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । सोमम् । इन्द्र । विष्णवि । यत् ॥ वा । घ । त्रिते । आप्त्ये ॥ यत् । वा । मरुत्ऽसु । मन्दसे । सम् । इन्दुऽभि: ॥१११.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
विषय - विष्णु-त्रित आप्त्य
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो । (यत्) = जब आप (विष्णवि) = [विष् व्यासौ] व्यापक-उदार हृदयवाले पुरुष में (सोमम्) = सोम को (संमन्दसे) = प्रशंसित करते हैं। (यत् वा) = अथवा (घ) = निश्चय से (त्रिते) = [त्रीन् तनोति] 'ज्ञान, कर्म व उपासना' इन तीनों का विस्तार करनेवालों में आप सोम को प्रशंसित करते हैं (आप्त्ये:) = आतों में उत्तम पुरुषों में आप इस सोम को प्रशंसित करते हैं, अर्थात् यह सोम-रक्षण ही उन्हें 'विष्णु, त्रित व आप्त्य' बनाता है। एक पुरुष में उदारता 'विष्णु'"ज्ञान, कर्म व उपासना' तीनों के विस्तार [त्रित] व आप्तता [Aptness आप्त्य] को देखकर और इन बातों को सोममूलक जानकर लोग सोम का प्रशंसन तो करेंगे ही। इस प्रशंसन को करते हुए वे सोम-रक्षण के लिए प्रेरणा प्राप्त करेंगे। २. (यत् वा) = अथवा हे इन्द्र! आप (मरुत्सु) = इन प्राणसाधक पुरुषों में (इन्दुभिः) = इन सुरक्षित सोमकणों से (संमन्दसे) = [to shine] चमकते हैं। सोमकणों का रक्षण ज्ञानाग्नि को दीस करता है और बुद्धि को तीव्र बनाता है। इस तीव्र बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है। ('दृश्यते त्वय्या बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः')।
भावार्थ - सोम-रक्षण से हम उदार-हृदय, ज्ञान, कर्म व उपासना का विस्तार करनेवाले व आप्त बनते हैं। प्राणसाधना होने पर सुरक्षित हुआ-हुआ सोम ही हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है।
इस भाष्य को एडिट करें