Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 111/ मन्त्र 3
यद्वासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धो यज॑मानस्य सत्पते। उ॒क्थे वा॒ यस्य॒ रण्य॑सि॒ समिन्दु॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । असि॑ । सु॒न्व॒त: । वृ॒ध: । यज॑मानस्य । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥ उ॒क्थे । वा॒ । यस्य॑ । रण्य॑सि । सम् । इन्दु॑ऽभि: ॥१११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वासि सुन्वतो वृधो यजमानस्य सत्पते। उक्थे वा यस्य रण्यसि समिन्दुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । असि । सुन्वत: । वृध: । यजमानस्य । सत्ऽपते ॥ उक्थे । वा । यस्य । रण्यसि । सम् । इन्दुऽभि: ॥१११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 111; मन्त्र » 3
विषय - 'सुन्वतः यजमानस्य' वृधः
पदार्थ -
१. हे (सत्पते) = उत्तम कर्मों के रक्षक प्रभो! आप (यत् वा) = निश्चय से (सुन्वतः) = सोम का सम्पादन करनेवाले-अपने अन्दर सोम को सुरक्षित करनेवाले (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (वृधः असि) = बढ़ानेवाले हैं। इस यज्ञशील सोमी पुरुष को आप सदा बढ़ाते हैं। २. (वा) = अथवा उसके आप बढ़ानेवाले हैं (यस्य) = जिसके (उक्थे) = स्तोत्र में आप (इन्दुभिः) = सोमकणों के द्वारा (संरण्यसि) = सम्यक् प्रीतिवाले होते हैं। जो भी स्तोता सोमकणों का रक्षण करता हुआ प्रभु-स्तवन करता है, वह प्रभु का प्रिय बनता है।
भावार्थ - प्रभु सोमरक्षक यज्ञशील पुरुष का वर्धन करते हैं। सोम-रक्षक पुरुष से किया जानेवाला स्तवन प्रभु को प्रिय होता है। यह प्रभु का स्तोता प्रभु को अपनी शरण बनाता है, अत: 'सु-कक्ष'-उत्तम शरणवाला [Hiding place] कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
इस भाष्य को एडिट करें