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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 112/ मन्त्र 1
यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ अ॒भि सू॑र्य। सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒द्य । कत् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । उ॒त्ऽगा॑: । अ॒भि । सू॒र्य॒ ॥ सर्व॑म् । तत् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । वशे॑ ॥११२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य। सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अद्य । कत् । च । वृत्रऽहन् । उत्ऽगा: । अभि । सूर्य ॥ सर्वम् । तत् । इन्द्र । ते । वशे ॥११२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 112; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र-वृत्रहन्-सूर्य
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वृत्रहन्) = कामनाओं को विनष्ट करनेवाले व (सूर्य) = सूर्य की भौति निरन्तर क्रियाशील जीव ! (यत्) = जब (अद्य) = आज या जब भी कभी तू (उत्) = प्रकृति से ऊपर उठकर (अभि अगा:) = मेरी ओर आता है तब (तत् सर्वम्) = वह सब हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (ते वशे) = तेरी इच्छा पर निर्भर करता है। तू दृढ़ संकल्प करेगा, वासनाओं को विनष्ट करके ज्ञान सूर्य से दीप्त जीवनवाला बनेगा तो अवश्य मेरी ओर [प्रभु की ओर] आनेवाला होगा। २. प्रभु की ओर आने पर है (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (तत् सर्वम्) = यह सब संसार (ते वशे) = तरे वश में होगा। प्रभु को प्राप्त कर लेने पर तुझे ये सब ब्रह्माण्ड प्राप्त हो जाएगा।
भावार्थ - हम प्रभु-प्राप्ति का दृढ़ संकल्प करें। यह संकल्प हमें वासना-विनाश में प्रवृत्त करेगा और तब हमारे जीवन में वासनाओं के मेघों का विलय होकर ज्ञानसूर्य का उदय होगा।
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