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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 115/ मन्त्र 2
अ॒हं प्र॒त्नेन॒ मन्म॑ना॒ गिरः॑ शुम्भामि कण्व॒वत्। येनेन्द्रः॒ शुष्म॒मिद्द॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । प्र॒त्नेन॑ । मन्म॑ना । गिर॑: । शु॒म्भा॒मि॒ । क॒ण्व॒ऽवत् ॥ येन॑ । इन्द्र॑: । शुष्म॑म् । इत् । द॒धे ॥११५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं प्रत्नेन मन्मना गिरः शुम्भामि कण्ववत्। येनेन्द्रः शुष्ममिद्दधे ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । प्रत्नेन । मन्मना । गिर: । शुम्भामि । कण्वऽवत् ॥ येन । इन्द्र: । शुष्मम् । इत् । दधे ॥११५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 115; मन्त्र » 2
विषय - सनातन ज्ञान के द्वारा बल की प्राप्ति
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार मैं प्रभु से प्रकाश प्राप्त करता हूँ। (अहम्) = मैं (प्रत्नेन) = सनातन-सदा सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जानेवाले (मन्मना) = ज्ञान से (गिरः शुम्भामि) = अपनी बाणियों को ऐसे अलंकृत करता हूँ (कण्ववत्) = जैसेकि एक मेधावी पुरुष किया करता है। वस्तुतः यह सनातन ज्ञान ही मुझे मेधावी बनाता है। २. उस ज्ञान से मैं अपनी वाणियों को अंकृत करता हूँ, (येन) = जिससे (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (इत्) = निश्चय से (शुष्पम्) = शत्रु-शोषक बल को (दधे) = धारण करता है। इस ज्ञानाग्नि से ही इन्द्र सब असुरों को दग्ध करनेवाला होता है।
भावार्थ - सनातन वेदज्ञान मेरी वाणियों को अलंकृत करे । इस ज्ञान के द्वारा जितेन्द्रिय बनता हुआ मैं सब बासनारूप शत्रुओं के शोषक बल को धारण करूँ।
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