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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 118

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 118/ मन्त्र 3
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-११८

    इन्द्र॒मिद्दे॒वता॑तय॒ इन्द्रं॑ प्रय॒त्यध्व॒रे। इन्द्रं॑ समी॒के व॒निनो॑ हवामह॒ इन्द्रं॒ धन॑स्य सा॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । इत् । दे॒वऽता॑तये । इन्द्र॑म् । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे ॥ इन्द्र॑म् । स॒म्ऽई॒के । व॒निन॑: । ह॒वा॒म॒हे॒ । इन्द्र॑म् । धन॑स्य । सा॒तये॑ ॥११८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रमिद्देवतातय इन्द्रं प्रयत्यध्वरे। इन्द्रं समीके वनिनो हवामह इन्द्रं धनस्य सातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । इत् । देवऽतातये । इन्द्रम् । प्रऽयति । अध्वरे ॥ इन्द्रम् । सम्ऽईके । वनिन: । हवामहे । इन्द्रम् । धनस्य । सातये ॥११८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 118; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रम् इत्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही (प्रयति अध्वरे) = इस चलते हुए जीवन-यज्ञ के निमित्त, अर्थात् जीवन-यज्ञ की रक्षा के लिए पुकारते हैं। (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (देवतातये) = दिव्यगुणों के विस्तार के लिए हवामहे-पुकारते हैं । २. (इन्द्रम्) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु को ही (समीके) = संग्रामों में पुकारते हैं। प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर हम शत्रुओं का विद्रावण कर पाएँगे। (वनिन:) = प्रभु का संभजन करनेवाले हम (धनस्य सातये) = धन की प्रासि के लिए (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को पुकारते हैं।

    भावार्थ - प्रभु की आराधना से ही [१] जीवन-यज्ञ सुरक्षितरूप में चलता है [२] दिव्यगुणों का विस्तार होता है ३. संग्रामों में हम विजयी बनते हैं और [३] धनों की प्राप्ति में समर्थ होते हैं।

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