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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 118

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
    सूक्त - भर्गः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-११८

    पौ॒रो अश्व॑स्य पुरु॒कृद्गवा॑म॒स्युत्सो॑ देव हिर॒ण्ययः॑। नकि॒र्हि दानं॑ परि॒मर्धि॑ष॒त्त्वे यद्य॒द्यामि॒ तदा भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पौ॒र: । अश्व॑स्य । पु॒रु॒ऽकृत् । गवा॑म् । अ॒सि॒ । उत्स॑: । दे॒व॒ । हि॒र॒ण्यय॑: ॥ नकि॑: । हि । दान॑म् । प॒रि॒ऽमर्धि॑षत् । त्वे इति॑ । यत्ऽय॑त् । यामि॑ । तत् । आ । भ॒र॒ ॥११८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पौरो अश्वस्य पुरुकृद्गवामस्युत्सो देव हिरण्ययः। नकिर्हि दानं परिमर्धिषत्त्वे यद्यद्यामि तदा भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पौर: । अश्वस्य । पुरुऽकृत् । गवाम् । असि । उत्स: । देव । हिरण्यय: ॥ नकि: । हि । दानम् । परिऽमर्धिषत् । त्वे इति । यत्ऽयत् । यामि । तत् । आ । भर ॥११८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 118; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो! (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली, कर्मेन्द्रियों के आप (पौर:) = पूरयिता (असि) = हैं। (गवाम्) = अर्थों की गमक इन्द्रियों के आप (पुरुकृत्) = पालन व पूरण करनेवाले हैं। आप हमारे लिए (हिरण्ययः उत्स:) = ज्योतिर्मय स्रोत के समान हैं। २. (त्वे) = आपमें (दानम्) = हमारे लिए देय धन (नकिः हि) = नहीं ही (परिमार्धिषत्) = हिंसित होता, अर्थात् आप सदा हमारे लिए इन धनों को प्राप्त कराते हैं। (यत् यत् यामि) = जो-जो मैं आपसे माँगता हूँ (तत) = उसे (आभर) = हमारे लिए प्राप्त कराइए।

    भावार्थ - प्रभु हमारी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का पूरण करनेवाले हैं। हमारे लिए ज्ञान के स्रोत हैं। जो कुछ माँगते हैं, उसे हमारे लिए देते हैं।

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