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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 123/ मन्त्र 2
तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑। अ॑न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ प्राजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒भि॒ऽचक्षे॑ । सूर्य॑: । रू॒पम् । कृ॒णु॒ते॒ । द्यौ: । उ॒पऽस्थे॑ ॥ अ॒न॒न्तम् । अ॒न्यत् । रुश॑त् । अ॒स्य॒ । पाज॑: । कृ॒ष्णम् । अ॒न्यत् । ह॒रित॑: । सम् । भ॒र॒न्ति॒ ॥१२३॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्रुशदस्य प्राजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । मित्रस्य । वरुणस्य । अभिऽचक्षे । सूर्य: । रूपम् । कृणुते । द्यौ: । उपऽस्थे ॥ अनन्तम् । अन्यत् । रुशत् । अस्य । पाज: । कृष्णम् । अन्यत् । हरित: । सम् । भरन्ति ॥१२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 123; मन्त्र » 2
विषय - 'अनन्त, अन्यत्, रुशत् पाज:
पदार्थ -
। १. यह (सूर्य:) = ज्ञान-सूर्य को अपने अन्दर उदित करनेवाला व्यक्ति (द्यो:) = उस प्रकाशमय प्रभु के (उपस्थे) = समीप, अर्थात् उसकी उपासना करता हुआ (मित्रस्य) = स्नेह की भावना के तथा (वरुणस्य) = द्वेष-निवारण की भावना के (अभिचक्षे) = अपने अन्दर दर्शन के लिए (तत् रूपम्) = उस प्रकाश को अपने अन्दर (कृणुते) = करता है [रूपम् प्रज्ञाने नि० १०.१३] । प्रभु का उपासक उस प्रकाश को पाता है जो प्रकाश उसे मनुष्य की एकता का दर्शन कराता है-उस स्थिति में राग द्वेष का प्रश्न ही कहाँ? २. (अस्य) = इस ज्ञानदीप्त पुरुष का (पाज:) = बल (अनन्तम्) = बहुत अधिक होता है। (अन्यत्) = इसका बल विलक्षण ही होता है। (शत्) = इसका यह बल देदीप्यमान होता है। वस्तुत: प्रभु के सम्पर्क के कारण इसमें प्रभु की शक्ति काम करने लगती है, अत: इसकी शक्ति का असाधारण व विलक्षण प्रतीत होना स्वाभाविक है। ३. (हरित:) = इसकी ये ज्ञानरश्मियाँ (अन्यत्) = एक विलक्षण ही (कृष्णम्) = [कृष्-भूः स्वास्थ्य, न: निवृत्ति]-स्वास्थ्य व सन्तोष का (संभरन्ति) = सम्यक् भरण करनेवाली होती हैं। इस 'कुत्स' के ज्ञान-सूर्य की रश्मियों सभी को प्राणशक्ति व प्रकाश प्राप्त कराती हैं।
भावार्थ - हम प्रभु का उपस्थान करते हुए ज्ञान प्राप्त करें। सबके प्रति स्नेहवाले, तेजस्वी व प्रकाश फैलानेवाले बनें। प्रभु की गोद में बैठनेवाला यह उपासक स्नेह व निर्देषिता को अपनाकर 'वामदेव'-सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बनता है। यही अगले सूक्त में १-३ का ऋषि है। लोकहित में प्रवृत्त हुआ हुआ यह सबको अपने परिवार में सम्मिलित करके 'भुवन' होता है। यही ४-६ तक मन्त्रों का ऋषि है -
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