अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 124/ मन्त्र 1
कया॑ नश्चि॒त्र आ भु॑वदू॒ती स॒दावृ॑धः॒ सखा॑। कया॒ शचि॑ष्ठया वृ॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठकया॑ । न॒: । चि॒त्र: । आ । भु॒व॒त् । ऊ॒ती । स॒दाऽवृ॑ध: । सखा॑ ॥ कया॑ । शचि॑ष्ठया । वृ॒ता ॥१२४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा। कया शचिष्ठया वृता ॥
स्वर रहित पद पाठकया । न: । चित्र: । आ । भुवत् । ऊती । सदाऽवृध: । सखा ॥ कया । शचिष्ठया । वृता ॥१२४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 124; मन्त्र » 1
विषय - वह सदा का साथी
पदार्थ -
१. वे (सदावृधः) = सदा से बढ़े हुए (सखा) = जीव के मित्र (चित्र:) = अद्भुत शक्ति व ज्ञानवाले प्रभु (न:) = हमारे (ऊती:) = कल्याणमय रक्षण के द्वारा (आभुवत्) = चारों ओर विद्यमान हैं। जब मैं प्रभु से आवृत्त हूँ तब मुझे भय किस बात का? 'हम प्रभु में रह रहे हैं' इस तथ्य को हम अनुभव करेंगे तो निर्भीक बनेंगे ही। प्रभु हमें सदा बढ़ानेवाले हैं। हम ही क्रोध, ईर्ष्या व द्वेष आदि से उस उन्नति को समाप्त कर लेते हैं। २. वे प्रभु कया कल्याणकर (शचिष्ठया) = अत्यन्त शक्तिप्रद (वृता) = आवर्तन के द्वारा हमारे चारों ओर विद्यमान हैं। दिन-रात व ऋतुओं आदि का चक्र हमारे कल्याण के लिए ही है।
भावार्थ - मैं उस सदा के साथी, मेरी सतत वृद्धि के कारणभूत प्रभु को अपने चारों ओर अनुभव करूँ। वे प्रभु अनन्त शक्तिप्रद आवर्तनों के द्वारा हमारी रक्षा कर रहे हैं।
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