अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 124/ मन्त्र 3
सूक्त - वामदेवः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-१२४
अ॒भी षु णः॒ सखी॑नामवि॒ता ज॑रितॄ॒णाम्। श॒तं भ॑वास्यू॒तिभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । सु । न॒: । सखी॑नाम् । अ॒वि॒ता । ज॒रि॒तॄ॒णाम् ॥ श॒तम् । भ॒वा॒सि॒ । ऊ॒तिऽभि॑: ॥१२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम्। शतं भवास्यूतिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । सु । न: । सखीनाम् । अविता । जरितॄणाम् ॥ शतम् । भवासि । ऊतिऽभि: ॥१२४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 124; मन्त्र » 3
विषय - सखा+जरिता
पदार्थ -
१.हे प्रभो! आप (अभि) = दोनों ओर (स) = उत्तमता से (न:) = हम (सखीनाम्) = सखा [मित्र] (जरितृणाम्) = स्तोताओं को (शतम्) = सौ वर्षपर्यन्त (ऊतिभिः) = रक्षणों के द्वारा (अविता भवसि) = रक्षक होते हैं। प्रभु मातृ-गर्भ में भी व बाहर आने पर भी हमारे रक्षक होते हैं। उन्होंने सर्वत्र हामरे रक्षण की व्यवस्था की है। सम्पूर्ण संसार चक्राकार गति में चलता हुआ हमारा रक्षण करनेवाला होता है। २. यह रक्षण सखाओं को प्राप्त होता है। जो भी व्यक्ति समान ख्यान-[ज्ञान]-वाले बनते हैं वे ही संसार के इन पदार्थों से कल्याण प्राप्त कर पाते हैं। इसी प्रकार प्रभु-स्तवन करते हुए वे भटकते नहीं और कल्याण के भागी होते हैं। ३. 'ऊतिभि:'-शब्द का अर्थ 'कर्मों से' [गति से] भी है। प्रभु क्रियाशील का ही कल्याण करते हैं। इसप्रकार अपने जीवन में 'ज्ञान, उपासना व कर्म' का समन्वय करनेवाला व्यक्ति प्रभु-कृपा का पात्र बनता है।
भावार्थ - हम प्रभु के सखा व स्तोता बनकर प्रभु-कृपा के पात्र हों। प्रभु सबके रक्षक हैं।
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