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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 138/ मन्त्र 3
कण्वाः॒ इन्द्रं॒ यदक्र॑त॒ स्तोमै॑र्य॒ज्ञस्य॒ साध॑नम्। जा॒मि ब्रु॑वत॒ आयु॑धम् ॥
स्वर सहित पद पाठकण्वा॑: । इन्द्र॑म् । यत् । अक्र॑त् । स्तोमै॑: । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् ॥ जा॒मि । ब्रु॒व॒ते॒ । आयु॑धम् ॥१३८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कण्वाः इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम्। जामि ब्रुवत आयुधम् ॥
स्वर रहित पद पाठकण्वा: । इन्द्रम् । यत् । अक्रत् । स्तोमै: । यज्ञस्य । साधनम् ॥ जामि । ब्रुवते । आयुधम् ॥१३८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 138; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु संरक्षण व आयुध-वैयर्थ्य
पदार्थ -
१. (कण्वा:) = मेधावी पुरुष (यत्) = जब (इन्द्रम्) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (स्तोमैः) = स्तुति-समूहों के द्वारा (यज्ञस्य साधनम्) = अपने सब उत्तम कर्मों का सिद्ध करनेवाला (अक्रत) = कर लेते हैं तब वे (आयुधम्) = इन बाह्य अस्त्र-शस्त्रों को (जामि ब्रुवते) = व्यर्थ ही कहते हैं। २. प्रभु जब रक्षक हैं तो इन अस्त्रों की बहुत उपयोगिता नहीं रह जाती। स्पेन ने आरमेडा द्वारा जब इंग्लैण्ड पर आक्रमण किया तो आँधी-तूफान के झोंको से उसके तितर-बितर हो जाने पर रानी एलिाबेथ ने ठीक ही कहा था कि 'प्रभु ने फूंक मारी और आरमेडा विनष्ट हो गया। प्रभु के रक्षण के प्रकार अद्भुत ही हैं। प्रभु-विश्वासी प्रयत्न में कमी नहीं रखता और प्रभु उसे अवश्य ही सफलता प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - प्रभु का संरक्षण होने पर सब बाह्य अस्त्र-शस्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। यह प्रभु का भक्त प्लुतगतिवाला-आलस्यशून्य होने से 'शश' होता है और वासनाओं के विक्षेप से 'कर्ण' [कृ विक्षेपे] कहलाता है। इस 'शशकर्ण' ऋषि के ही अगले चार सूक्त हैं -
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