अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
आ नू॒नम॑श्विना यु॒वं व॒त्सस्य॑ गन्त॒मव॑से। प्रास्मै॑ यच्छतमवृ॒कं पृथु छ॒र्दिर्यु॑यु॒तं या अरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नू॒नम् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । व॒त्सस्य॑ । ग॒न्त॒म् । अव॑से । प्र । अस्मै॑ । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒वृ॒कम् । पृ॒थु । छ॒र्दि: । यु॒यु॒तम् । या: । अरा॑तय: ॥१३९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नूनमश्विना युवं वत्सस्य गन्तमवसे। प्रास्मै यच्छतमवृकं पृथु छर्दिर्युयुतं या अरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नूनम् । अश्विना । युवम् । वत्सस्य । गन्तम् । अवसे । प्र । अस्मै । यच्छतम् । अवृकम् । पृथु । छर्दि: । युयुतम् । या: । अरातय: ॥१३९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 1
विषय - 'अवृकं पृथु' छर्दिः
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (युवम्) = आप (नूनम्) = निश्चय से (वत्सस्य) = ज्ञान व स्तुति-वाणियों का उच्चारण करनेवाले इस अपने प्रिय साधक के (अवसे) = रक्षण के लिए (आगन्तम्) = आइए। प्राणापान ही हमें रोगों व वासनाओं के आक्रमण से बचाते हैं। २. (अस्मै) = इस वत्स के लिए (छर्दिः) = ऐसे शरीर-गृह को (प्रयच्छतम्) = दीजिए, जोकि (अवृकम्) = बाधक शत्रुओं से रहित है तथा (पृथु) = विशाल है, अर्थात् जिस शरीर-गृह में वासनाओं व रोगों का प्रवेश नहीं तथा जो विस्तृत शक्तियोंवाला है। ऐसे शरीर-गृह को प्राप्त कराने के लिए (या:) = जो (अरातयः) = शत्रु हैं, उन्हें (युयुतम्) = पृथक् कीजिए।
भावार्थ - प्राणापान हमारा रक्षण करें। हमें रोगों की बाधाओं से रहित, विस्तृत शक्तिवाले शरीर-गृह को प्राप्त कराएँ। हमारे शत्रुभूत काम, क्रोध, लोभ आदि को हमसे पृथक् करें।
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