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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 139

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 5
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - ककुबुष्णिक् सूक्तम् - सूक्त १३९

    यद॒प्सु यद्वन॒स्पतौ॒ यदोष॑धीषु पुरुदंससा कृ॒तम्। तेन॑ माविष्टमश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒प्ऽसु । वन॒स्पतौ॑ । यत् । ओष॑धीषु । पु॒रु॒दं॒स॒सा॒ । कृ॒तम् ॥ तेन॑ । मा॒ । अ॒वि॒ष्ट॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥१३९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदप्सु यद्वनस्पतौ यदोषधीषु पुरुदंससा कृतम्। तेन माविष्टमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अप्ऽसु । वनस्पतौ । यत् । ओषधीषु । पुरुदंससा । कृतम् ॥ तेन । मा । अविष्टम् । अश्विना ॥१३९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे (पुरुदंससा) = पालक व पूरक कमोवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! (यत्) = जो तेज [धर्म] आप (अप्सु) = जलों का प्रयोग होने पर, (यद् वनस्पतौ) = जो वनस्पतियों का प्रयोग होने पर तथा (यद् ओषधीषु) = जो तेज आप ओषधियों का प्रयोग होने पर (कृतम्) = उत्पन्न करते हो, (तेन) = उस तेज से (मा आविष्टम्) = मेरा रक्षण करो। २. यहाँ 'अप्सु ओषधीषु वनस्पती' इन शब्दों का प्रयोग स्पष्ट प्रतिपादन कर रहा है कि योगसाधना में खान-पान की शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। प्राणायाम के साथ मनुष्य का शाकभोजी होना आवश्यक है। सादा खानपान योगसाधना में सहायक होता है।

    भावार्थ - हम जलों व ओषधियों के प्रयोग के साथ प्राणापान की साधना करते हुए तेजस्विी बनें और अपना रक्षण करें।

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