अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 4
अ॒यं वां॑ घ॒र्मो अ॑श्विना॒ स्तोमे॑न॒ परि॑ षिच्यते। अ॒यं सोमो॒ मधु॑मान्वाजिनीवसू॒ येन॑ वृ॒त्रं चि॑केतथः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । वा॒म् । घ॒र्म: । अ॒श्वि॒ना॒ । स्तोमे॑न । परि॑ । सि॒च्य॒ते॒ ॥ अ॒यम् । सोम॑: । मधु॑ऽमान् । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । येन॑ । वृ॒त्रम् । चिके॑तथ: ॥१३९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं वां घर्मो अश्विना स्तोमेन परि षिच्यते। अयं सोमो मधुमान्वाजिनीवसू येन वृत्रं चिकेतथः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । वाम् । घर्म: । अश्विना । स्तोमेन । परि । सिच्यते ॥ अयम् । सोम: । मधुऽमान् । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । येन । वृत्रम् । चिकेतथ: ॥१३९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 4
विषय - घर्म+सोम
पदार्थ -
१.हे (अश्विना) = प्राणापानो! (अयम्) = यह (वाम्) = आपका (घर्म:) = तेज (सोमेन) = प्रभु-स्तवन के साथ (परिषिच्यते) = शरीर में चारों ओर सिक्त होता है। जब प्रभु-स्तवन के साथ प्राणसाधना चलती है तब शरीर के सब अंग तेजस्विता से सिक्त होते हैं। २. हे (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धनोंवाले प्राणापानो! (अयम्) = यह (वाम्) = आपका-आपके द्वारा शरीर में सुरक्षित होनेवाला (सोमः) = सोम [वीर्य] (मधुमान) = जीवन को मधुर बनानेवाला है। (येन) = जिस सोम के द्वारा (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (चिकेतथ:) = आप हन्तव्यरूप में जानते हो [हन्तव्यतया जानीथः]। सामान्य भाषा में यही प्रयोग इस रूप में होता है कि 'अच्छा, मैं तुझे समझ लूंगा'। सोमशक्ति के रक्षण से ही वासनाओं का विनाश होकर ज्ञान की वृद्धि होती है।
भावार्थ - प्रभु-स्तवन के साथ प्राणसाधना के चलने पर शरीर में तेजस्विता व सोम का रक्षण होता है।
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