अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 2
यद॒न्तरि॑क्षे॒ यद्दि॒वि यत्पञ्च॒ मानु॑षाँ॒ अनु॑। नृ॒म्णं तद्ध॑त्तमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्तरि॑क्षे । यत् । दि॒वि । यत् । पञ्च॑ । मानु॑षाम् । अनु॑ ॥ नृ॒म्णम् । तत् । ध॒त्त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥१३९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरिक्षे यद्दिवि यत्पञ्च मानुषाँ अनु। नृम्णं तद्धत्तमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरिक्षे । यत् । दिवि । यत् । पञ्च । मानुषाम् । अनु ॥ नृम्णम् । तत् । धत्तम् । अश्विना ॥१३९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 2
विषय - सन्तोष, ज्ञान व स्वास्थ्य' रूप धन
पदार्थ -
१. मानवजीवन को सुखी करनेवाला धन 'नृम्ण' कहलाता है। हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यत्) = जो (नृम्णम्) = धन (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में होता है, अर्थात् जो सन्तोष-[आत्मतृप्ति]-रूप धन हदय में निवास करता है, (तत्) = उस धन को (धत्तम्) = हमारे लिए धारण कीजिए। प्राणसाधना से हृदय निर्मल होता है-चित्तवृत्ति बाह्यधनों के लिए बहुत लालयित नहीं होती। इसप्रकार हृदय में एक सन्तोष के आनन्द का अनुभव होता है। २. हे प्राणापानो। (यत्) = जो (दिवि) = मस्तिष्क का ज्ञानरूप धन है और (यत्) = जो (पञ्चमानुषान) = पाँच मानव-सम्बन्धी वस्तुओं के (अनु) = अनुकूलतावाला धन है, उसे आप हमारे लिए प्राप्त कराइए। मानव-सम्बन्धी सर्वप्रथम पाँच वस्तुएँ शरीर को बनानेवाले पाँच महाभूत हैं। फिर पाँच प्राण हैं। फिर पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियों व पाँच "मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व हृदय' है। इन सबके अनुकूल धनों को ये प्राणापान हमारे लिए प्राप्त कराएँ।
भावार्थ - हृदय के सन्तोषरूप धन को, मस्तिष्क के ज्ञानरूप धन को तथा मानव-पञ्चकों के पूर्ण स्वास्थ्यरूप धन को ये प्राणापान हमारे लिए प्राप्त कराएँ।
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