अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 3
ये वां॒ दंसां॑स्यश्विना॒ विप्रा॑सः परिमामृ॒शुः। ए॒वेत्का॒ण्वस्य॑ बोधतम् ॥
स्वर सहित पद पाठये । वा॒म् । दंसां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । विप्रा॑स: । प॒रि॒ऽम॒मृ॒क्षु: ॥ ए॒व । इत् । का॒ण्वस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् ॥१३९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ये वां दंसांस्यश्विना विप्रासः परिमामृशुः। एवेत्काण्वस्य बोधतम् ॥
स्वर रहित पद पाठये । वाम् । दंसांसि । अश्विना । विप्रास: । परिऽममृक्षु: ॥ एव । इत् । काण्वस्य । बोधतम् ॥१३९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 3
विषय - प्राणमहत्त्व-बोध व प्राणसाधना
पदार्थ -
१. ये (विप्रास:) = जो अपना पूरण करनेवाले ज्ञानी पुरुष हैं, वे हे (अश्विना) = प्राणापानो! (वाम्) = आपके (दंसांसि) = वीरतापूर्ण कर्मों का (परिमामृशुः) = चिन्तन करते हैं। इन कर्मों का चिन्तन करते हुए वे आपके कर्मों का [परिमामृशुः-] स्पर्श करते हैं, अर्थात् आपकी साधना के कर्म में प्रवृत्त होते हैं। २. (एवा इत्) = ऐसा होने पर ही, अर्थात् जब यह साधक आपकी साधना में प्रवृत्त होता है, तभी (काण्वस्य) = इस मेधावी पुरुष का (बोधतम्) = आप ध्यान करते हो। समझदार व्यक्ति प्राणों का रक्षण करता है-प्राण उसका रक्षण करते हैं।
भावार्थ - हम प्राणों के महत्त्व को समझते हुए प्राणसाधना में प्रवृत्त हों और इस साधना द्वारा शक्ति-सम्पन्न बनें।
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