अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
यन्ना॑सत्या भुर॒ण्यथो॒ यद्वा॑ देव भिष॒ज्यथः॑। अ॒यं वां॑ व॒त्सो म॒तिभि॒र्न वि॑न्धते ह॒विष्म॑न्तं॒ हि गच्छ॑थः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ना॒स॒त्या॒ । भु॒र॒ण्यथ॑: । यत् । वा॒ । दे॒वा॒ । भि॒ष॒ज्यथ॑: ॥ अ॒यम् । वा॒म् । व॒त्स: । म॒तिऽभि॑: । न । वि॒न्धते॒ । ह॒विष्म॑न्तम् । हि । गच्छ॑थ: ॥१४०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्नासत्या भुरण्यथो यद्वा देव भिषज्यथः। अयं वां वत्सो मतिभिर्न विन्धते हविष्मन्तं हि गच्छथः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । नासत्या । भुरण्यथ: । यत् । वा । देवा । भिषज्यथ: ॥ अयम् । वाम् । वत्स: । मतिऽभि: । न । विन्धते । हविष्मन्तम् । हि । गच्छथ: ॥१४०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 1
विषय - भुरण्यथो भिषज्यथः
पदार्थ -
१. हे (नासत्या) = हमारे जीवनों से सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप (यत्) = जब (भुरण्यथ:) = हमारा भरण करते हो (वा) = और (देव) = [देवा] सब रोगों को जीतने की कामनावाले आप (भिषज्यथ:) = हमारे सब रोगों की चिकित्सा करते हो तब (अयम्) = यह (वाम्) = आपका (वत्सः) = प्रिय आराधक (मतिभिः) = केवल ज्ञानों से-ज्ञानपूर्वक की गई स्तुतियों से (न विन्धते) = आपको प्राप्त नहीं करता। (हि) = निश्चय से आप (हविष्मन्तम्) = दानपूर्वक अदन करनेवाले व्यक्ति को (गच्छथः) = प्राप्त होते हो। २. प्राणसाधना करनेवाला मनुष्य यह अच्छी तरह समझ लेता है कि ये प्राणापान हमारा पालन करते हैं, ये ही हमारे सब रोगों को दूर करते हैं। ऐसा समझता हुआ यह पुरुष केवल प्राणों का स्तवन ही नहीं करता रहता, इस स्तवन के साथ यह त्यागपूर्वक अदन की वृत्तिवाला बनकर प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है। हविष्मान' बनता है।
भावार्थ - प्राणापान हमारा पालन करते हैं, ये हमारे सब रोगों की चिकित्सा करते हैं। इनका हम स्तवन करें तथा त्यागपूर्वक अदन करनेवाले बनकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों।
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