अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 2
आ नू॒नम॒श्विनो॒रृषि॒ स्तोमं॑ चिकेत वा॒मया॑। आ सोमं॒ मधु॑मत्तमं घ॒र्मं सि॑ञ्चा॒दथ॑र्वणि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नू॒नम् । अ॒श्विनो॑: । ऋषि॑: । स्तोम॑म् । चि॒के॒त॒ । वा॒मया॑ ॥ आ । सोम॑म् । मधु॑मत्ऽतमम् । घ॒र्मम् । सि॒ञ्चा॒त् । अथ॑र्वणि ॥१४०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नूनमश्विनोरृषि स्तोमं चिकेत वामया। आ सोमं मधुमत्तमं घर्मं सिञ्चादथर्वणि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नूनम् । अश्विनो: । ऋषि: । स्तोमम् । चिकेत । वामया ॥ आ । सोमम् । मधुमत्ऽतमम् । घर्मम् । सिञ्चात् । अथर्वणि ॥१४०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 2
विषय - मधुमत्तम-धर्मम्
पदार्थ -
१. (ऋषि:) = तत्त्वद्रष्टा ज्ञानी पुरुष (नूनम्) = निश्चय से (अश्विनो:) = प्राणापान के (स्तोमम्) = स्तवन को (वामया) = सुन्दर वाणी के द्वारा (आचिकेत) = सर्वथा करने योग्य जानता है। प्राणापान का स्तवन करता हुआ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है। २. इस प्राणसाधना में प्रवृत्त होने के द्वारा यह ऋषि (अथर्वणि) = [अथर्वति चरति] चित्त के डाँवाडोल न होने पर (सोमम्) = सोमशक्ति को (आसिञ्चात्) = अपने शरीर में ही सर्वत्र सिक्त करता है। यह सोम (मधुमत्तमम्) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाला है और (घर्मम्) = यह तेज-ही-तेज है-अपने रक्षक को तेजस्वी बनानेवाला है।
भावार्थ - हम प्राणापान के लाभों का स्तवन करते हुए प्राणसाधना द्वारा सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति करनेवाले हों। यह सोम हमें माधुर्य व तेज प्राप्त कराएगा।
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