अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 3
आ नू॒नं र॒घुव॑र्तनिं॒ रथं॑ तिष्ठाथो अश्विना। आ वां॒ स्तोमा॑ इ॒मे मम॒ नभो॒ न चु॑च्यवीरत ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नू॒नम् । र॒घुऽव॑र्तनिम् । रथ॑म् । ति॒ष्ठा॒थ॒: । अ॒श्वि॒ना ॥ आ । वा॒म् । स्तोमा॑: । इ॒मे । मम॑ । नभ॑: । न । चु॒च्य॒वी॒र॒त॒ ॥१४०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नूनं रघुवर्तनिं रथं तिष्ठाथो अश्विना। आ वां स्तोमा इमे मम नभो न चुच्यवीरत ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नूनम् । रघुऽवर्तनिम् । रथम् । तिष्ठाथ: । अश्विना ॥ आ । वाम् । स्तोमा: । इमे । मम । नभ: । न । चुच्यवीरत ॥१४०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 3
विषय - रघुवर्तनि रथम्
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (नूनम्) = निश्चय से (रघुवर्तनिम्) = [लघुगमनम्]-शीघ्र गतिवाले इस (रथम्) = शरीर-रथ पर आप (आतिष्ठाथ:) = स्थित होते हैं। प्राणसाधना के द्वारा यह शरीर-रथ (आलस्यशून्य) = स्फूर्तिवाला बनता है, २. अत: (इमे) = ये (मम) = मेरे-मुझसे किये जानेवाले (स्तोमाः) = स्तुतिसमूह (नभः न) = सूर्य के समान तेजस्वी (वाम्) = आपको (आचुच्यवीरत) = अभिगत होते हैं। मैं प्राणापान का स्तवन करता हुआ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता हूँ। यह प्राणसाधना मुझे सूर्य के समान तेजस्वी बनाती है।
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर में स्फूर्ति आ जाती है। यह प्राणसाधना हमें सूर्यसम तेजस्वी बनाती है।
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