अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
य॒ज्ञैरथ॑र्वा प्रथ॒मः प॒थस्त॑ते॒ ततः॒ सूर्यो॑ व्रत॒पा वे॒न आज॑नि। आ गा आ॑जदु॒शना॑ का॒व्यः सचा॑ य॒मस्य॑ जा॒तम॒मृतं॑ यजामहे ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञै: । अथ॑र्वा । प्र॒थ॒म: । प॒थ: । त॒ते॒ । तत॑: । सूर्य॑: । व्र॒त॒पा: । वे॒न: ।आ । अ॒ज॒नि॒ ॥ आ । गा: । आ॒ज॒त् । उ॒शना॑ । का॒व्य: ।सचा॑ । य॒मस्य॑ । जा॒तम् । अ॒मृत॑म् । य॒जा॒म॒हे॒ ॥२५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि। आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञै: । अथर्वा । प्रथम: । पथ: । तते । तत: । सूर्य: । व्रतपा: । वेन: ।आ । अजनि ॥ आ । गा: । आजत् । उशना । काव्य: ।सचा । यमस्य । जातम् । अमृतम् । यजामहे ॥२५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
विषय - अथर्वा-सूर्यः-व्रतपाः
पदार्थ -
१. (अथर्वा) = संसार के विषयों में डांवाडोल न होनेवाला व्यक्ति (प्रथम:) = सर्वप्रथम होता है वह सबका अग्नणी होता है। (यज्ञैः) = यज्ञों के द्वारा पथ: मार्गों को तते-विस्तृत करता है। तत: तब ऐसा करने पर, यह सूर्य:-[सरति] निरन्तर क्रियाशील व सूर्य के समान चमकनेवाला बनता है। व्रतपा: यह व्रतों का पालन करता है और वेन: आजनि-विचारशील हो जाता है-प्रत्येक काम को सोच-समझकर विचारपूर्वक करता है। २. यह गा: इन्द्रियों को आ आजत्-समन्तात् अपने-अपने कर्मों में प्रेरित करता है। उशना:-प्रभु-प्राप्ति की कामनावाला होता है। काव्यः ज्ञानी बनता है। इस यमस्य-सर्वनियन्ता प्रभु के सचा-साथ जातम् प्रादुर्भूतशक्तिवाले अमृतम्-विषय वासनाओं के पीछे न मारनेवाले पुरुष को यजामहे-हम आदर देते हैं और इसका संग करने का यत्न करते हैं।
भावार्थ - हम स्थिरवृत्ति बनकर यज्ञमय जीवनवाले बनें। सूर्य के समान व्रतों का पालन करनेवाले हों। इन्द्रियों को कर्तव्य-कर्मों में प्रेरित करें। प्रभु के सम्पर्क में रहनेवाले लोगों का संसर्ग करें।
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