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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२५

    अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑। असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । द्वयो॑: । अ॒द॒धा॒: । उ॒क्थ्य॑म् । वच॑: । य॒तऽस्रु॑चा। मि॒थु॒ना । या । स॒प॒र्यत॑: ॥ अस॑म्ऽयत्त: । व्र॒ते । ते॒ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति । भ॒द्रा । श॒क्ति: । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥२५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः। असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि । द्वयो: । अदधा: । उक्थ्यम् । वच: । यतऽस्रुचा। मिथुना । या । सपर्यत: ॥ असम्ऽयत्त: । व्रते । ते । क्षेति । पुष्यति । भद्रा । शक्ति: । यजमानाय । सुन्वते ॥२५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. यह उपासक (द्वयोः अधि) = ज्ञान व कर्मरूप स्तम्भों पर छत के रूप में (उक्थ्यं वच:) = स्तुतिवचन को (अदधा:) = धारण करता है। वही स्तुति मनुष्य का का रक्षण करनेवाली होती है, जोकि ज्ञान व कर्म पर आश्रित हो। (या) = जो (मिथुना) = स्त्री व पुमानुरूप इन्द्र (यतस्तुचा) = यज्ञ-साधन चमस् आदि पात्रों को ग्रहण किये हुए होते हैं, अर्थात् यज्ञशील होते हैं, अथवा नियमित वाणीवाले-मौनव्रतवाले होते हैं, वे ही वस्तुत: (सपर्यंत:) = प्रभु-पूजन करते हैं [वाग्वै स्तुमः श० ६.३.१.८] । २. हे प्रभो! (असंयत:) = विषयों से अबद्ध पुरुष (ते व्रते क्षेति) = आपके व्रत में निवास करता है, इसके जीवन का उद्देश्य आपको प्राप्त करना होता है। इसकी सब क्रियाएँ आपको प्राप्त करने के उद्देश्य से होती हैं। (पुष्यति) = यह पोषण को प्राप्त करता है। इस (यजमानाय) = यज्ञशील सुन्वते-सोम का अभिषव [सम्पादन] करनेवाले पुरुष के लिए ही भद्रा शक्ति:-कल्याणकर शक्ति होती है। यह शक्तिशाली होता है और इसकी शक्ति सदा हितकर कार्यों में प्रवृत्त होती

    भावार्थ - हम ज्ञान व कर्मरूप दो स्तम्भों पर भक्तिरूप छत की स्थापना करें। मौनव्रत को धारें। विषयों से अबद्ध होकर प्रभु की ओर चलें। यज्ञशील व सोम का सम्पादन करनेवाले बनकर भद्रशक्ति को प्राप्त करें।

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