अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑। असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । द्वयो॑: । अ॒द॒धा॒: । उ॒क्थ्य॑म् । वच॑: । य॒तऽस्रु॑चा। मि॒थु॒ना । या । स॒प॒र्यत॑: ॥ अस॑म्ऽयत्त: । व्र॒ते । ते॒ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति । भ॒द्रा । श॒क्ति: । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥२५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः। असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठअधि । द्वयो: । अदधा: । उक्थ्यम् । वच: । यतऽस्रुचा। मिथुना । या । सपर्यत: ॥ असम्ऽयत्त: । व्रते । ते । क्षेति । पुष्यति । भद्रा । शक्ति: । यजमानाय । सुन्वते ॥२५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] (द्वयोः अधि) उन दोनों के ऊपर (उक्थ्यम्) बड़ाई के योग्य (वचः) वचन को (अदधाः) तूने धारण किया है, (या) जो (यतस्रुचा) चमचा [भोजन साधन] लिये हुए (मिथुना) दोनों मिलनसार स्त्री-पुरुष (सपर्यतः) सेवा करते हैं। वह [स्त्री वा पुरुष] (ते) तेरे (व्रते) नियम में (असंयत्तः) बे रोक [स्वतन्त्र] होकर (क्षेति) रहता है और, (पुष्यति) पुष्ट होता है, (भद्रा) कल्याण करनेहारी (शक्तिः) शक्ति (यजमानाय) यजमान [सत्कार, संगति और दान करनेहारे] (सुन्वते) ऐश्वर्यवान् पुरुष के लिये [होती है] ॥३॥
भावार्थ
सब स्त्री-पुरुष विद्वानों के उपदेश और मार्ग पर चलकर स्वाधीनता के साथ भोजन आदि से आप सुख पाते और सबको सुख देते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(अधि) उपरि (द्वयोः) स्त्रीपुरुषोः (अदधाः) धारितवानसि (उक्थ्यम्) कथनीयं स्तुत्यम् (वचः) वचनम् (यतस्रुचा) यमु उपरमे-क्त। चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ-चिक्। यता नियताः स्रुचः चमसा भोजनसाधनानि याभ्यां तौ (मिथुना) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।। मिथृ मेथृ संगमे वधे मेधायां च-उनन्, कित्। मिलितौ स्त्रीपुरुषौ (या) यौ (सपर्यतः) सपर पूजायाम्-कण्ड्वादित्वाद् यक्। सपर्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। परिचरतः। सेवेते (असंयत्तः)। नञ्+सम्+यती प्रयत्ने-क्त। अनायत्तः। अवशीभूतः। स्वतन्त्रः (व्रते) नियमे (ते) तव (क्षेति) क्षि निवासगत्योः विकरणस्य लुक्। क्षियति। निवसति (पुष्यति) पुष्टो भवति (भद्रा) कल्याणी (शक्तिः) समर्थता (यजमानाय) पूजासंगतिदानशीलाय (सुन्वते) षु ऐश्वर्ये-शतृ, स्वादित्वं छान्दसम्। ऐश्वर्यवते ॥
विषय
'ज्ञान व कर्म' रूप दो स्तम्भों पर भक्ति' रूप छत
पदार्थ
१. यह उपासक (द्वयोः अधि) = ज्ञान व कर्मरूप स्तम्भों पर छत के रूप में (उक्थ्यं वच:) = स्तुतिवचन को (अदधा:) = धारण करता है। वही स्तुति मनुष्य का का रक्षण करनेवाली होती है, जोकि ज्ञान व कर्म पर आश्रित हो। (या) = जो (मिथुना) = स्त्री व पुमानुरूप इन्द्र (यतस्तुचा) = यज्ञ-साधन चमस् आदि पात्रों को ग्रहण किये हुए होते हैं, अर्थात् यज्ञशील होते हैं, अथवा नियमित वाणीवाले-मौनव्रतवाले होते हैं, वे ही वस्तुत: (सपर्यंत:) = प्रभु-पूजन करते हैं [वाग्वै स्तुमः श० ६.३.१.८] । २. हे प्रभो! (असंयत:) = विषयों से अबद्ध पुरुष (ते व्रते क्षेति) = आपके व्रत में निवास करता है, इसके जीवन का उद्देश्य आपको प्राप्त करना होता है। इसकी सब क्रियाएँ आपको प्राप्त करने के उद्देश्य से होती हैं। (पुष्यति) = यह पोषण को प्राप्त करता है। इस (यजमानाय) = यज्ञशील सुन्वते-सोम का अभिषव [सम्पादन] करनेवाले पुरुष के लिए ही भद्रा शक्ति:-कल्याणकर शक्ति होती है। यह शक्तिशाली होता है और इसकी शक्ति सदा हितकर कार्यों में प्रवृत्त होती
भावार्थ
हम ज्ञान व कर्मरूप दो स्तम्भों पर भक्तिरूप छत की स्थापना करें। मौनव्रत को धारें। विषयों से अबद्ध होकर प्रभु की ओर चलें। यज्ञशील व सोम का सम्पादन करनेवाले बनकर भद्रशक्ति को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(या मिथुना) जो पति-पत्नी (यतस्रुचा) यज्ञिय-स्रुच् पकड़ कर आहुतियों द्वारा (सपर्यतः) परमेश्वर की परिचर्या करते हैं, (द्वयोः अधि) उन दोनों में हे परमेश्वर! आप (उक्थ्यम्) वैदिक सूक्तरूपी (वचः) वचन अर्थात् मन्त्र (अदधाः) निहित कर देते हैं, अर्थात् वे वैदिक मन्त्रों द्वारा आपकी स्तुतियाँ करने लग जाते हैं। हे परमेश्वर! (ते) आपके दर्शाए (व्रते) व्रतों में (असंयत्तः) जो प्रयत्न नहीं करता, वह (क्षेति) क्षीण होता जाता है। और जो (ते) आपके दर्शाए (व्रते) व्रतों में (क्षेति) निवास करता है, अर्थात् तदनुकूल अपना जीवन बना लेता है, वह (पुष्यति) पुष्टि प्राप्त करता है। और उस (सुन्वते) भक्तिरसवाले (यजमानाय) यज्ञशील व्यक्ति को (भद्रा) सुखदायिनी और कल्याणकारिणी (शक्तिः) शक्ति प्राप्त होती है।
टिप्पणी
[स्रुच्=यज्ञ का चमचा, जिसके द्वारा अग्नि में घृताहुति दी जाती है। असंयत्तः=अ+सम्+यत् (=प्रयत्ने)+क्त। क्षेति=क्षय; निवास।]
विषय
राजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे इन्द्र ! राजन् ! परमेश्वर ! (यतस्रुचा) वीर्य की रक्षा करने वाले अथवा अपने प्राणों की रक्षा करने वाले, (या) जो (मिथुना) स्त्री पुरुष तेरी (सपर्यतः) पूजा सत्कार करते हैं तू (द्वयोः अधि) उन दोनो को (उक्थ्यम्) उपदेश करने योग्य ज्ञानमय (वचः) आज्ञा-वचन (अदधाः) प्रदान करता है। (ते व्रते) तेरे नियम व्यवस्था में (असंयत्तः) नियम से न रहने वाला, अजितेन्द्रिय पुरुष (क्षेति) विनाश को प्राप्त होता है। (सुन्वते यजमानाय) तेरी आज्ञा पालन करने वाले, तेरे प्रति कर-प्रदान या मनोयोग देने वाले या तेरी उपासना, पूजा करने वाले पुरुष की (भद्रा) सुखदायिनी कल्याणी (शक्तिः) शक्ति (पुष्यति) पुष्ट होती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६ गोतमो राहूगण ऋषिः। ७ अष्टको वैश्वामित्रः। १-६ जगत्यः। ७ त्रिष्टुप् षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Indra, lord of yajna, just as you accept the offerings held in the ladles raised by the wedded couple, so graciously listen and accept the holy prayers of the two, ancients and moderns, teacher and disciple, husband and wife, parent and child, for the good of both. Even the loose and the wanton, under your care, find shelter and protection and grow. The gracious power of yajna creates and offers everything for the yajamana.
Translation
O Almighty God, you accept the word of adoration of those two who concerted with each other, with uplifted ladle pray and perform Yajna. The power of yours is benevolent for the performer of Yajna who offers oblations. He unchecked dwells and prospers in your law.
Translation
O Almighty God, you accept the word of adoration of those two who concerted with each other, with uplifted ladle pray and perform Yajna. The power of yours is benevolent for the performer of Yajna who offers oblations. He unchecked dwells and prospers in your law.
Translation
O God or king, Thou, offerest good counsel, worthy to be preached, to' the couple, who, controlling their semen and vital breaths worship Thee with devotional he one, who does not follow Thy rules and regulations of life, is ruined. The peaceful power of the generating sacrifices acting according to Thy instructions, is enhanced all the more.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अधि) उपरि (द्वयोः) स्त्रीपुरुषोः (अदधाः) धारितवानसि (उक्थ्यम्) कथनीयं स्तुत्यम् (वचः) वचनम् (यतस्रुचा) यमु उपरमे-क्त। चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ-चिक्। यता नियताः स्रुचः चमसा भोजनसाधनानि याभ्यां तौ (मिथुना) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।। मिथृ मेथृ संगमे वधे मेधायां च-उनन्, कित्। मिलितौ स्त्रीपुरुषौ (या) यौ (सपर्यतः) सपर पूजायाम्-कण्ड्वादित्वाद् यक्। सपर्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। परिचरतः। सेवेते (असंयत्तः)। नञ्+सम्+यती प्रयत्ने-क्त। अनायत्तः। अवशीभूतः। स्वतन्त्रः (व्रते) नियमे (ते) तव (क्षेति) क्षि निवासगत्योः विकरणस्य लुक्। क्षियति। निवसति (पुष्यति) पुष्टो भवति (भद्रा) कल्याणी (शक्तिः) समर्थता (यजमानाय) पूजासंगतिदानशीलाय (सुन्वते) षु ऐश्वर्ये-शतृ, स्वादित्वं छान्दसम्। ऐश्वर्यवते ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে বিদ্বান্!] (দ্বয়োঃ অধি) তাঁদের উভয়ের ওপর (উক্থ্যম্) প্রশংসাযোগ্য (বচঃ) বচন (অদধাঃ) তুমি ধারণ করেছো, (যা) যে (যতস্রুচা) চামচ [ভোজন সাধনের] জন্য নিয়ত (মিথুনা) স্ত্রী-পুরুষ উভয় মিলে (সপর্যতঃ) সেবা করে। সেই [স্ত্রী বা পুরুষ](তে) তোমার (ব্রতে) নিয়মে (অসংয়ত্তঃ) অবশীভূত [স্বতন্ত্র] হয়ে (ক্ষেতি) থাকে, এবং (পুষ্যতি) পুষ্ট হয়, (ভদ্রা) কল্যাণকারী (শক্তিঃ) শক্তি (যজমানায়) যজমান [সৎকার, সঙ্গতি ও দানশীল] (সুন্বতে) ঐশ্বর্যবান পুরুষের জন্য [হয়]॥৩॥
भावार्थ
সকল স্ত্রী-পুরুষ বিদ্বানদের উপদেশ এবং তাঁদের প্রদর্শিত মার্গ অনুসরণ করে স্বাধীনতার সহিত ভোজন আদি দ্বারা নিজে সুখী হয় এবং সকলকে সুখ দেয় ॥৩॥
भाषार्थ
(যা মিথুনা) যে পতি-পত্নী (যতস্রুচা) যজ্ঞিয়-স্রুচ্ ধরে আহুতি দ্বারা (সপর্যতঃ) পরমেশ্বরের পরিচর্যা করে, (দ্বয়োঃ অধি) তাঁদের মধ্যে হে পরমেশ্বর! আপনি (উক্থ্যম্) বৈদিক সূক্তরূপী (বচঃ) বচন অর্থাৎ মন্ত্র (অদধাঃ) নিহিত করেন, অর্থাৎ তাঁরা বৈদিক মন্ত্র-সমূহ দ্বারা আপনার স্তুতি করে। হে পরমেশ্বর! (তে) আপনার দ্বারা প্রদর্শিত (ব্রতে) ব্রতের মধ্যে (অসংয়ত্তঃ) যে প্রচেষ্টা করে না, সে (ক্ষেতি) ক্ষীণ হয়ে যায়। এবং যে (তে) আপনার প্রদর্শিত (ব্রতে) ব্রতের মধ্যে (ক্ষেতি) নিবাস করে, অর্থাৎ তদনুকূল নিজের জীবন গঠন করে, সে (পুষ্যতি) পুষ্টি প্রাপ্ত করে। এবং সেই (সুন্বতে) ভক্তিরসসম্পন্ন (যজমানায়) যজ্ঞশীল ব্যক্তি (ভদ্রা) সুখদায়িনী এবং কল্যাণকারিণী (শক্তিঃ) শক্তি প্রাপ্ত হয়।
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