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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२५
    46

    ब॒र्हिर्वा॒ यत्स्व॑प॒त्याय॑ वृ॒ज्यते॒ऽर्को वा॒ श्लोक॑मा॒घोष॑ते दि॒वि। ग्रावा॒ यत्र॒ वद॑ति का॒रुरु॒क्थ्यस्तस्येदिन्द्रो॑ अभिपि॒त्वेषु॑ रण्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब॒र्हि: । वा॒ । यत् । सु॒ऽअ॒प॒त्याय॑ । वृ॒ज्यते॑ । अ॒र्क:। वा॒ । श्लोक॑म् । आ॒ऽघोष॑ते । दि॒वि ॥ ग्रावा॑ । यत्र॑ । वद॑ति । का॒रु: । उ॒क्थ्य॑: । तस्य । इत् । इन्द्र॑: । अ॒भि॒ऽपि॒त्वेषु॑ । र॒ण्य॒ति॒ ॥२५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बर्हिर्वा यत्स्वपत्याय वृज्यतेऽर्को वा श्लोकमाघोषते दिवि। ग्रावा यत्र वदति कारुरुक्थ्यस्तस्येदिन्द्रो अभिपित्वेषु रण्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बर्हि: । वा । यत् । सुऽअपत्याय । वृज्यते । अर्क:। वा । श्लोकम् । आऽघोषते । दिवि ॥ ग्रावा । यत्र । वदति । कारु: । उक्थ्य: । तस्य । इत् । इन्द्र: । अभिऽपित्वेषु । रण्यति ॥२५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (बर्हिः) उत्तम आसन (स्वपत्याय) गुणी सन्तान के लिये (वा) विचारपूर्वक (वृज्यते) छोड़ा जाता है, (वा) अथवा (अर्कः) पूजनीय विद्वान् (श्लोकम्) अपनी वाणी को (दिवि) व्यवहार के बीच (आघोषते) कह सुनाता है। और (यत्र) जहाँ (ग्रावा) मेघ [के समान उपकारी], (उक्थ्यः) प्रशंसनीय (कारुः) शिल्पी विद्वान् (वदति) बोलता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष] (तस्य) इस [सब] के (इत्) ही (अभिपित्वेषु) सङ्ग्रामों में (रण्यति) आनन्द पाता है ॥६॥

    भावार्थ

    जिस स्थान में विद्वान् गुणी सन्तानों का आदर होता है और जहाँ पर बड़े विज्ञानी शिल्पी लोग उत्तम-उत्तम विद्याओं का आविष्कार करते हैं, वहाँ पर सब प्राणियों को सुख मिलता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(बर्हिः) उत्तमासनम् (वा) वेति विचारणार्थे-निरु० १।४। विचारपूर्वकम् (यत्) यदा (स्वपत्याय) गुणिने सन्तानाय (वृज्यते) वृजी वर्जने। त्यज्यते। दीयते (अर्कः) पूजनीयः पण्डितः (वा) अथवा (श्लोकम्) वाणीम् (आघोषते) घुषिर् विशब्दने। उच्चारयति (दिवि) व्यवहारे (ग्रावा) मेघनाम-निघ० १।१०। मेघ इवोपकारी (यत्र) यस्मिन् देशे (वदति) उपदिशति (कारुः) शिल्पकर्ता विद्वान् (उक्थ्यः) प्रशंसनीयः (तस्य) पूर्वोक्तस्य सर्वस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (अभिपित्वेषु) जनिदाच्यु०। उ० ४।१०४। पि गतौ-त्वन् प्रत्ययः। अभिप्राप्तिषु। संगमेषु (रण्यति) रमु क्रीडायाम्-छान्दसः श्यन् परस्मैपदं मकारस्य नत्वं च। रमते। आनन्दितो भवति ॥

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    विषय

    प्रभु-रमण कहाँ?

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (वा) = निश्चय से बर्हि:-यह वासनाशून्य हृदय स्वपत्याय-उत्तम सन्तानों के लिए वृज्यते-पाप की भावनाओं से पृथक् किया जाता है, अर्थात् जब एक घर में पति-पत्नी अपने हृदयों को पवित्र बनाते हैं और परिणामतः उत्तम सन्तानों को प्राप्त करते हैं। वा-या जब अर्थ:-स्तोता दिवि-स्तुतिकर्म में [दिव स्तुती] श्लोकम् आघोषते-प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करता है। २. यत्र-जिस गृह में ग्राबा-सत्कर्मों का उपदेष्टा, कारु:-स्वयं उत्तमता से कार्यों को करनेवाला उक्थ्य:-स्तोत्रों में उत्तम पुरुष वदति-कर्तव्य-पथ का उपदेश करता है, तस्य इत्-उस गृह के ही अभिपित्वेषु-समीप देशों में-ऐसे घर के वातावरण में ही-इन्द्रः रण्यति-प्रभु रमण करते हैं, अर्थात् इस गृह का वातावरण ही प्रभु-प्राप्ति के अनुकूल होता है।

    भावार्थ

    प्रभु का निवास उन घरों में होता है, जहाँ लोग [क] अपने हृदयों को पवित्र बनाते हैं, [ख] जहाँ प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण होता है, [ग] जहाँ स्वयं 'ज्ञानप्रधान कर्मशील स्तोता' बनकर सन्तानों को कर्तव्य-पथ का उपदेश दिया जाता है।

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    भाषार्थ

    (दिवि) द्युलोक में (अर्कः) सूर्य, जिस परमेश्वर की (श्लोकम्) कीर्त्ति की (आ घोषते) सर्वत्र घोषणा कर रहा है, उस (स्वपत्याय) स्वभूत परमेश्वर की प्राप्ति के लिए, (यत्) जब (बर्हिः) द्रव्ययज्ञ के साधनभूत कुशा आदि के काटने का (वृज्यते) परित्याग कर दिया जाता है, तथा (उक्थ्यः) प्रशंसनीय (कारुः) स्तोता (यत्र) जब (ग्रावा) परमेश्वर-सम्बन्धी ही स्तुतियाँ करता, और (वदति) मानो परमेश्वर के साथ संवाद करने लगता है, तब (इन्द्रः) परमेश्वर (तस्य) उस उपासक के (पित्वेषु) भक्तिरसरूपी अन्नों में (अभि रण्यति) अभिरमण करने लगता है।

    टिप्पणी

    [स्वपत्याय=स्वभूत+पत् (गतौ, प्राप्तौ)। ग्रावा=गृणातेर्वा (निरु০ ९.१.८)। कारुः=स्तोता (निघं০ ३.१६)। पित्वेषु=पितु=अन्न (निघं০ २.७)। वृज्यते=परमेश्वर की प्राप्ति में द्रव्ययज्ञ बाधक हैं।]

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    विषय

    राजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यत्) जिस राज्य में, जिस देश में (बर्हिः वा) धान्य (स्वपत्याय) उत्तम सन्तानों की पुष्टि के लिये (वृज्यते) प्रदान किया जाता है (वा) और जहां (अर्कः) अर्चना करने वाला या पूज्य विद्वान् (दिवि) प्रतिदिन, या ज्ञानप्रकाश के लिये (श्लोक) वेदवाणी का (आघोषते) पाठ या प्रचार करता है, (यत्र) और जिस स्थान पर (कारुः) क्रियावान् (उक्थ्यः) वेदों के सूक्त जानने हारा (ग्रावा) ज्ञानोप्रदेशक विवेकी पुरुष (वदति) धर्म का निर्णय करता है (तस्य इत्) उसके ही (अभिपित्वेषु) प्राप्त करने के प्रयत्नों में (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष भी (रण्यति) सुखी होता है, या रण आदि करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-६ गोतमो राहूगण ऋषिः। ७ अष्टको वैश्वामित्रः। १-६ जगत्यः। ७ त्रिष्टुप् षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Where knowledge and science is collected like holy grass of yajna for the sake of noble posterity, where holy verses illuminating as the sun in heaven are chanted, where the artist carves around the vedi and holy mantras resound as thunder of the clouds, there in the blessed foods and offerings, Indra, lord of yajna, rejoices and speaks.

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    Translation

    Where and when the seat of grass (Kusha) is stretched for good offspring, the respected wise man resounds word of praise in the sky, the praiseworthy man of art like the cloud loudly speaks, Indra, the mighty ruler takes delight in the performances of such a kind.

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    Translation

    Where and when the seat of grass (Kusha) is stretched for good offspring, the respected wise man resounds word of praise in the sky, the praiseworthy man of art like the cloud loudly speaks, Indra, the mighty ruler takes delight in the performances of such a kind.

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    Translation

    God, king or a learned person is well-pleased in the efforts to get hold of the country or kingdom, where food or provisions are offered to the good progeny and where the enlightened scholar, worthy of respect by the people explains aloud the Veda-mantras for the enlightenment of the public, and where the Vedic preacher versatile in the performance of good deeds, fully equipped with Vedic knowledge preaches the Dharma, the path of virtue.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(बर्हिः) उत्तमासनम् (वा) वेति विचारणार्थे-निरु० १।४। विचारपूर्वकम् (यत्) यदा (स्वपत्याय) गुणिने सन्तानाय (वृज्यते) वृजी वर्जने। त्यज्यते। दीयते (अर्कः) पूजनीयः पण्डितः (वा) अथवा (श्लोकम्) वाणीम् (आघोषते) घुषिर् विशब्दने। उच्चारयति (दिवि) व्यवहारे (ग्रावा) मेघनाम-निघ० १।१०। मेघ इवोपकारी (यत्र) यस्मिन् देशे (वदति) उपदिशति (कारुः) शिल्पकर्ता विद्वान् (उक्थ्यः) प्रशंसनीयः (तस्य) पूर्वोक्तस्य सर्वस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (अभिपित्वेषु) जनिदाच्यु०। उ० ४।१०४। पि गतौ-त्वन् प्रत्ययः। अभिप्राप्तिषु। संगमेषु (रण्यति) रमु क्रीडायाम्-छान्दसः श्यन् परस्मैपदं मकारस्य नत्वं च। रमते। आनन्दितो भवति ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (বর্হিঃ) উত্তম আসন (স্বপত্যায়) গুণী সন্তানের জন্য (বা) বিচারপূর্বক (বৃজ্যতে) দেওয়া হয়, (বা) অথবা (অর্কঃ) পূজনীয় বিদ্বান্ (শ্লোকম্) নিজের বাণীকে (দিবি) ব্যবহারের মধ্যে (আঘোষতে) ঘোষনা করে/উচ্চারণ করে। এবং (যত্র) যেখানে (গ্রাবা) মেঘ [এর ন্যায় উপকারী], (উক্থ্যঃ) প্রশংসনীয় (কারুঃ) শিল্পী বিদ্বান্ (বদতি) বলে, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (তস্য) এই [সকলের] (ইৎ)(অভিপিত্বেষু) সংগ্রামে (রণ্যতি) আনন্দিত হয় ॥৬॥

    भावार्थ

    যে স্থানে বিদ্বান্ গুণীসন্তানদের আদর হয় এবং যেখানে বড় বিজ্ঞানী শিল্পীগন উত্তম-উত্তম বিদ্যার আবিষ্কার করে, সেখানে সকল প্রাণী সুখী হয় ॥৬॥

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    भाषार्थ

    (দিবি) দ্যুলোকে (অর্কঃ) সূর্য, যে পরমেশ্বরের (শ্লোকম্) কীর্ত্তির (আ ঘোষতে) সর্বত্র ঘোষণা করছে, সেই (স্বপত্যায়) স্বভূত পরমেশ্বরের প্রাপ্তির জন্য, (যৎ) যখন (বর্হিঃ) দ্রব্যযজ্ঞের সাধনভূত কুশাদি কাটার (বৃজ্যতে) পরিত্যাগ করা হয়, তথা (উক্থ্যঃ) প্রশংসনীয় (কারুঃ) স্তোতা (যত্র) যখন (গ্রাবা) পরমেশ্বর-সম্বন্ধিত স্তুতি করে, এবং (বদতি) মানো পরমেশ্বরের সাথে সংবাদ/কথোপকথন করে, তখন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (তস্য) সেই উপাসকের (পিত্বেষু) ভক্তিরসরূপী অন্নের মধ্যে (অভি রণ্যতি) অভিরমণ/নিরন্তর রমণ করেন।

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