अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
आपो॒ न दे॒वीरुप॑ यन्ति हो॒त्रिय॑म॒व प॑श्यन्ति॒ वित॑तं॒ यथा॒ रजः॑। प्रा॒चैर्दे॒वासः॒ प्र ण॑यन्ति देव॒युं ब्र॑ह्म॒प्रियं॑ जोषयन्ते व॒रा इ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । न । दे॒वी: । उप॑ । य॒न्ति॒ । हो॒त्रिय॑म् । अ॒व: । प॒श्य॒न्ति॒ । विऽत॑तम् । यथा॑ । रज॑: ॥ प्रा॒चै: । दे॒वास॑: । प्र । न॒य॒न्ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् । ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म् । जो॒ष॒य॒न्ते॒ । व॒रा:ऽइ॑व ॥२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो न देवीरुप यन्ति होत्रियमव पश्यन्ति विततं यथा रजः। प्राचैर्देवासः प्र णयन्ति देवयुं ब्रह्मप्रियं जोषयन्ते वरा इव ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । न । देवी: । उप । यन्ति । होत्रियम् । अव: । पश्यन्ति । विऽततम् । यथा । रज: ॥ प्राचै: । देवास: । प्र । नयन्ति । देवऽयुम् । ब्रह्मऽप्रियम् । जोषयन्ते । वरा:ऽइव ॥२५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(आपः न) व्याप्त जलों के समान [उपकारी] (देवासः) विद्वान् लोग (देवीः) दिव्य गुणवाली [विद्याओं] को (उप) आदर से (यन्ति) पाते हैं, और (होत्रियम्) देने-लेने योग्य (अवः) रक्षा को (यथा रजः) रज [धूलि] के समान (विततम्) फैला हुआ (पश्यन्ति) देखते हैं। और (वराः इव) श्रेष्ठ पुरुषों के समान वे (प्राचैः) पुराने व्यवहारों के साथ (देवयुम्) उत्तम गुण चाहनेवाले, (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वर और वेद में प्रीति करनेवाले पुरुष को (प्रणयन्ति) आगे बढ़ाते हैं और (जोषयन्ते) सेवा करते हैं ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग उत्तम-उत्तम विद्याएँ प्राप्त करके संसार के प्रत्येक पदार्थ से उपकार लेते हैं और श्रेष्ठ धर्मात्मा ईश्वरभक्त को अगुआ बनाकर उसकी आज्ञा में चलते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(आपः) व्याप्तानि जलानि (न) यथा (देवीः) दिव्यगुणवतीः सुविद्याः (उप) पूजायाम् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (होत्रियम्) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु-त्रन्। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। होत्र-घप्रत्ययः। होत्राणामिदम्। दातव्यादातव्यम् (अवः) रक्षणम् (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (विततम्) विस्तृतम् (यथा) येन प्रकारेण (प्राचैः) प्र+अञ्चतेः-घञर्थे कप्रत्ययः। प्राचीनैर्व्यवहारैः (देवासः) विद्वांसः (प्र) प्रकर्षेण। अग्रे (नयन्ति) प्रापयन्ति (देवयुम्) देव-क्यच्, उ। देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम् (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम् (जोषयन्ते) जुषी प्रीतिसेवनयोः-स्वार्थे णिच्। सेवन्ते (वराः) श्रेष्ठाः पुरुषाः (इव) यथा ॥
विषय
विततं यथा रजः [एक व्यापक प्रकाश]
पदार्थ
१. (देवी: आप:) = दिव्यगुणों से युक्त जल (न) = जैसे समुद्र की ओर जाते हैं, उसी प्रकार हमारी स्तुतियाँ (होत्रियम् उपयन्ति) = होत्र [समर्पण] के योग्य उस प्रभु के समीप प्राप्त होती है। उस समय ये स्तोता लोग (अव:) = [अवस्तोत्] अपने अन्दर-हृदयदेश में उस प्रभु को इसप्रकार (पश्यन्ति) = देखते हैं, (यथा) = जैसेकि (विततं रज:) = एक विस्तृत ज्योति हो। २. (देवासः) = देववृत्ति के लोग (देवयुम्) = दिव्यगुणों का हमारे साथ मिश्रण करनेवाले प्रभु को (प्राचैःप्रणयन्ति) = अग्रगमनों के द्वारा-उन्नतिपथ पर चलने के द्वारा अपने में प्राप्त कराते हैं। (ब्रह्मप्रियम्) = ज्ञान के द्वारा प्रीणित करनेवाले प्रभु को येस्तोता लोग (जोषयन्ते) = प्रीतिपूर्वक उपासित करते हैं। (वरा: इव) = इस प्रकार उपासित करते हैं जैसेकि वर कन्या को।
भावार्थ
प्रभु-स्तवन करते हुए हम हृदय में प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। आगे बढ़ते हुए हम देववृत्ति के बनकर प्रभु को प्रास करते हैं। उस ज्ञान के द्वारा प्रीणित करनेवाले प्रभु को ही हम प्रीतिपूर्वक उपासित करते हैं।
भाषार्थ
(आपः न) जलों के सदृश विशुद्ध और पवित्र करनेवाली (देवीः) दिव्य वेदवाणियाँ, स्वाध्याकर्त्ता के (होत्रियम्) स्वाध्याय-यज्ञ में (उप यन्ति) स्वयं उपस्थित हो जाती है। तब स्वाध्याय करनेवाले (विततम्) वेदवाणियों में व्याप्त (अवः) रक्षक परमेश्वर का ही वर्णन (पश्यन्ति) स्पष्टतया देखते हैं। (यथा) जैसे कि सर्वसाधरण जन (विततं रजः) व्याप्त आकाश को स्पष्टतया (पश्यन्ति) देखते हैं। (देवयुम्) परमेश्वर देव की अभीप्ससावाले, (ब्रह्मप्रियम्) और ब्रह्म के प्यारे उपासक को (प्राचैः) आगे-आगे बढ़ने के उपायों द्वारा (देवासः) योगाचार्य देव (प्रणयन्ति) योगमार्ग पर आगे-आगे ले चलते, और उसके साथ प्रणय अर्थात् प्रेम करने लगते हैं, (जोषयन्ते) और उसकी मार्ग-प्रदर्शन द्वारा सेवा करते हैं। (इव) जैसे कि (वराः) नव-विवाहित पुरुष नव-विवाहित अपनी पत्नियों के साथ प्रणय करते, और वस्तुओं के प्रदान द्वारा उनकी सेवा करते हैं।
टिप्पणी
[होत्रियम्; होत्रा=वाक् (निघं০ १.११); होत्रा=यज्ञ (निघं০ ३.१७)।]
विषय
राजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ
(देवीः आपः) देव अर्थात् मेघ से उत्पन्न जल जिस प्रकार नीचे प्रदेश की ओर आपसे आप बह आते हैं इसी प्रकार (होत्रियम्) सबको अपने अधीन लेने में समर्थ, एवं सबको रक्षा देने में समर्थ तुझको (देवीः आपः) दानशील, दर्शनशील आप्त प्रजाएं (उपयन्ति) प्राप्त होते हैं। और (यथा रजः) जैसे आकाश में फैली धूलि को या जिस प्रकार आकाश में सूर्य के फैले प्रकाश को लोग देखते हैं उसी प्रकार लोग तेरी (विततं अवः) विस्तृत रक्षण सामर्थ्य को भी (पश्यन्ति) देखते हैं। (देवासः) विद्वान् वीर पुरुष (देवयुम्) विद्वानों के प्यारे तुझको (प्राचैः) उत्कृष्ट पदपर (प्रणयन्ति) प्राप्त कराते हैं। (वरा इव) वर के सम्बन्धी जिस प्रकार अपने प्रिय वर को प्रीति से देखते हैं उसी प्रकार (ब्रह्मप्रियम्) वेद और वेदज्ञ विद्वानों के प्यारे तुझको (वराः) समस्त श्रेष्ठ पुरुष (जोषयन्ते) प्रेम से चाहते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६ गोतमो राहूगण ऋषिः। ७ अष्टको वैश्वामित्रः। १-६ जगत्यः। ७ त्रिष्टुप् षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Just as holy waters go to the sea and the vapours concentrate in the cloud, so do holy people go to yajna and to Indra, lord of yajna, and as they see the yajna spread around from the vedi as shelter of life’s protection, so they conduct themselves in the tradition of ancient scholars and go forward to the holiest of the holies of existence and, like the best people of knowledge, action and devotion, love the divine lord and the divine lore as the highest boon of life.
Translation
The enlightened persone like the water attain the virtuous qualities, they see the Divine protection like the molecules of dust extended every-where. Learned men like excellens ones by their good acts and dealing love and serve the man who unite them with meritorious deeds and for Whom God is dear.
Translation
The enlightened persone like the water attain the virtuous qualities, they see the Divine protection like the molecules of dust extended every-where. Learned men like excellens ones by their good acts and dealing love and serve the man who unite them with: meritorious deeds and for Whom God is dear.
Translation
O God or king, just as heavenly waters Sow down, similarly the virtuous people with divine qualities, approach Thee, Who is able to protect and offer comforts and well-being to them. Just as the people see the dust or sunlight spread all around in the sky, similarly they see Thy vast means of protection and safety, throughout the universe. The divine-natured persons attain Thee by their highest endeavours. The noble people love Thee who likes the Vedas and the Vedic scholars, just as the relatives of the bridegroom love him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(आपः) व्याप्तानि जलानि (न) यथा (देवीः) दिव्यगुणवतीः सुविद्याः (उप) पूजायाम् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (होत्रियम्) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु-त्रन्। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। होत्र-घप्रत्ययः। होत्राणामिदम्। दातव्यादातव्यम् (अवः) रक्षणम् (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (विततम्) विस्तृतम् (यथा) येन प्रकारेण (प्राचैः) प्र+अञ्चतेः-घञर्थे कप्रत्ययः। प्राचीनैर्व्यवहारैः (देवासः) विद्वांसः (प्र) प्रकर्षेण। अग्रे (नयन्ति) प्रापयन्ति (देवयुम्) देव-क्यच्, उ। देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम् (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम् (जोषयन्ते) जुषी प्रीतिसेवनयोः-स्वार्थे णिच्। सेवन्ते (वराः) श्रेष्ठाः पुरुषाः (इव) यथा ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(আপঃ ন) ব্যাপ্ত জলের ন্যায় [উপকারী] (দেবাসঃ) বিদ্বানগণ (দেবীঃ) দিব্যগুণযুক্ত [বিদ্যা] (উপ) আদরপূর্বক (যন্তি) প্রাপ্ত হয়, এবং (হোত্রিয়ম্) আদান-প্রদান যোগ্য (অবঃ) রক্ষাকে (যথা রজঃ) রজ [ধূলির] ন্যায় (বিততম্) বিস্তৃত (পশ্যন্তি) দেখে। এবং (বরাঃ ইব) শ্রেষ্ঠ পুরুষদের ন্যায় সে (প্রাচৈঃ) প্রাচীন ব্যবহারযুক্ত (দেবয়ুম্) উত্তম গুণ কামনাকারী, (ব্রহ্মপ্রিয়ম্) ঈশ্বর ও বেদের প্রতি প্রীতিকর পুরুষকে (প্রণয়ন্তি) অগ্রগামী করে এবং (জোষয়ন্তে) সেবা করে ॥২॥
भावार्थ
বিদ্বানগণ উত্তম-উত্তম বিদ্যা প্রাপ্ত করে সংসারের প্রত্যেক পদার্থ থেকে উপকার গ্রহণ করে এবং শ্রেষ্ঠ ধর্মাত্মা ঈশ্বরভক্তকে অগ্রণী করে তাঁর আজ্ঞায় চলে/আজ্ঞাবহ হয়॥২॥
भाषार्थ
(আপঃ ন) জলের সদৃশ বিশুদ্ধ এবং পবিত্রকারী (দেবীঃ) দিব্য বেদবাণী, স্বাধ্যাকর্ত্তার (হোত্রিয়ম্) স্বাধ্যায়-যজ্ঞে (উপ যন্তি) স্বয়ং উপস্থিত হয়। তখন স্বাধ্যায়কর্ত্তা (বিততম্) বেদবাণীর মধ্যে ব্যাপ্ত (অবঃ) রক্ষক পরমেশ্বরের বর্ণনা (পশ্যন্তি) স্পষ্টরূপে দর্শন করে। (যথা) যেমন সর্বসাধারণেরা (বিততং রজঃ) ব্যাপ্ত আকাশকে স্পষ্ট (পশ্যন্তি) দেখে/দর্শন করে। (দেবয়ুম্) পরমেশ্বর দেবতার অভিলাষী, (ব্রহ্মপ্রিয়ম্) এবং ব্রহ্মের প্রিয় উপাসককে (প্রাচৈঃ) সামনে অগ্রণী হওয়ার উপায় দ্বারা (দেবাসঃ) যোগাচার্য দেবতা (প্রণয়ন্তি) যোগমার্গে সামনে-সামনে নিয়ে যায়, এবং তাঁর সাথে প্রণয় অর্থাৎ প্রেম করে, (জোষয়ন্তে) এবং তাঁর মার্গ-প্রদর্শন দ্বারা সেবা করে। (ইব) যেমন (বরাঃ) নব-বিবাহিত পুরুষ নব-বিবাহিত নিজ পত্নীর সাথে প্রণয়/প্রেম করে, এবং বস্তু প্রদান দ্বারা তাঁর সেবা করে।
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