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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२९

    अ॑सु॒न्वामि॑न्द्र सं॒सदं॒ विषू॑चीं॒ व्यनाशयः। सो॑म॒पा उत्त॑रो॒ भव॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सु॒न्वाम् । इ॒न्द्र॒ । स॒म्ऽसद॑म् । विषू॑चीम् । वि । अ॒ना॒श॒य॒: ॥ सो॒म॒ऽपा: । उत्ऽत॑र: । भव॑न् ॥२९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुन्वामिन्द्र संसदं विषूचीं व्यनाशयः। सोमपा उत्तरो भवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असुन्वाम् । इन्द्र । सम्ऽसदम् । विषूचीम् । वि । अनाशय: ॥ सोमऽपा: । उत्ऽतर: । भवन् ॥२९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (असुन्वां संसदम्) = [न विद्यते सुनुः अभिभवो यस्याः] सोम के अभिषव में विघात करनेवाली अयष्ट्रसभा को (विषूची व्यनाशय:) = तितर-बितर करके नष्ट कर डाल। 'काम, क्रोध, लोभ' आदि आसुरभावों के होने पर मनुष्य यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त न होकर विषयों की ओर झुकता है और शरीर में सोमशक्ति का रक्षण नहीं कर पाता, अत: इन्हें 'असुनु संसद्' कहा गया है। इस संसद् का विनाश आवश्यक है। २. इस संसद् के विनाश से हे इन्द्र! तू (सोमपा:) = सोम का शरीर में रक्षण करनेवाला हो और (उत्तर: भवन्) = उत्कृष्टतम जीवनवाला बन।

    भावार्थ - हम काम-क्रोध आदि आसुरभावों की संसद् को भंग करके सोम-रक्षण करें और उन्नत जीवनवाले बनें। काम-क्रोधादि को विनष्ट करनेवाला यह 'बरु' कहलाता है-प्रभु का वरण करनेवाला। यह सर्वव्यापक, वासनाहारक प्रभु का ही स्मरण करता है, अत: 'सर्वहरि' भी कहलाता है। यह 'सर्वहरि बरु' प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है -

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