अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
प्र ते॑ म॒हे वि॒दथे॑ शंसिषं॒ हरी॒ प्र ते॑ वन्वे व॒नुषो॑ हर्य॒तं मद॑म्। घृ॒तं न यो हरि॑भि॒श्चारु॒ सेच॑त॒ आ त्वा॑ विशन्तु॒ हरि॑वर्पसं॒ गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । म॒हे । वि॒दथे॑ । शंसि॒ष॒म् । ह॒री इति॑ । ते॒ । व॒न्वे॒ । व॒नुष॑: । ह॒र्य॒तम् । मद॑म् ॥ घृ॒तम् । न । य: । हरि॑ऽभि: । चारु॑ । सेच॑ते । आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । हरि॑ऽवर्पसम् । गिरि॑: ॥३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते महे विदथे शंसिषं हरी प्र ते वन्वे वनुषो हर्यतं मदम्। घृतं न यो हरिभिश्चारु सेचत आ त्वा विशन्तु हरिवर्पसं गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । महे । विदथे । शंसिषम् । हरी इति । ते । वन्वे । वनुष: । हर्यतम् । मदम् ॥ घृतम् । न । य: । हरिऽभि: । चारु । सेचते । आ । त्वा । विशन्तु । हरिऽवर्पसम् । गिरि: ॥३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
विषय - घृतं+चारु
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (महे विदथे) = महान् ज्ञानयज्ञ के निमित्त (ते हरी) = आपसे दिये गये इन्द्रियाश्वों का (प्रशंसिषम्) = शंसन करता हूँ। इनके द्वारा मैं इस जीवन-संग्राम में ज्ञानपूर्वक कर्म करता हुआ उन्नति-पथ पर आगे बढ़नेवाला बन्। २. (वनुष:) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाले आपसे मैं (ते) = आपके द्वारा दिये जानेवाले (हर्यतम्) = चाहने योग्य [कमनीय] (मदम्) = सोमपानजनित मद को (प्रवन्वे) = प्रकर्षेण माँगता हूँ। ३. (यः) = जो आप (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों के द्वारा (घृतं न) = ज्ञानदीप्ति के समान (चारु) = यज्ञादि कर्मों के आचरण को (सेचते) = हममें सिक्त करते हैं, उन (हरिवर्षसम्) = तेजस्वी रूपवाले (त्वा) = आपको (गिरः) = हमारी स्तुतिवाणियाँ (आविशन्तु) = सर्वथा प्रविष्ट हों। आपका हम स्तवन करें। आप हमें ज्ञानदीप्ति व क्रियाशीलता प्राप्त कराएँ।
भावार्थ - प्रभु-प्रदत्त इन्द्रियों के महत्व को समझते हुए हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते हुए सदा उत्तम कर्म करनेवाले बनें। सोम-रक्षण द्वारा इन्हें सशक्त बनाएँ। प्रभु-स्मरण करते हुए ज्ञान व कर्म का अपने में समुच्चय करें।
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