अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
त्वंत्व॑महर्यथा॒ उप॑स्तुतः॒ पूर्वे॑भिरिन्द्र हरिकेश॒ यज्व॑भिः। त्वं ह॑र्यसि॒ तव॒ विश्व॑मु॒क्थ्यमसा॑मि॒ राधो॑ हरिजात हर्य॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्ऽत्व॑म् । अ॒ह॒र्य॒था॒: । उप॑ऽस्तुत: । पूर्वे॑भि: । इ॒न्द्र॒ । ह॒रि॒के॒श॒ । यज्व॑ऽभि: ॥ त्वम् । ह॒र्य॒सि॒ । तव॑ । विश्व॑म् । उ॒क्थ्य॑म् । असा॑मि । राध॑: । ह॒रि॒ऽजा॒त॒ । ह॒र्य॒तम् ॥३०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वंत्वमहर्यथा उपस्तुतः पूर्वेभिरिन्द्र हरिकेश यज्वभिः। त्वं हर्यसि तव विश्वमुक्थ्यमसामि राधो हरिजात हर्यतम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्ऽत्वम् । अहर्यथा: । उपऽस्तुत: । पूर्वेभि: । इन्द्र । हरिकेश । यज्वऽभि: ॥ त्वम् । हर्यसि । तव । विश्वम् । उक्थ्यम् । असामि । राध: । हरिऽजात । हर्यतम् ॥३०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
विषय - हरिकेश-हरिजात
पदार्थ -
१.हे (हरिकेश इन्द्र) = [हरि-सूर्य, केश-प्रकाशरश्मि] सूर्य के समान प्रकाश की रश्मियोंवाले सर्वशक्तिमन् प्रभो! (पूर्वेभिः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (यज्वभिः) = यज्ञशील पुरुषों से (उपस्तुत:) = स्तुति किये गये (त्वम्) = आप (त्वम्) = और आप ही (अहर्यथा:) = उस स्तोता के प्रति प्रीतिवाले होते हो और उसे प्राप्त होते हो [हर्य गतिकान्तयोः] २. (त्वं हर्यसि) = आप गतिवाले व दीसिवाले होते हो। हे (हरिजात) = सूर्य के समान प्रादुर्भूत हुए-हुए प्रभो! (तव विश्वं राध:) = आपका सम्पूर्ण ऐश्वर्य (उक्थ्यम्) = स्तुति के योग्य है, (असामि) = पूर्ण है तथा (हर्यतम्) = कान्त है। आप ही उपासकों के लिए इस ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें प्राप्त होंगे और प्रभु हमें सब आवश्यक ऐश्वर्यों को प्राप्त कराएँगे। अगले सूक्त में ऋषि-देवता पूर्ववत् ही हैं
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