अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
हरिं॒ हि योनि॑म॒भि ये स॒मस्व॑रन्हि॒न्वन्तो॒ हरी॑ दि॒व्यं यथा॒ सदः॑। आ यं पृ॒णन्ति॒ हरि॑भि॒र्न धे॒नव॒ इन्द्रा॑य शू॒षं हरि॑वन्तमर्चत ॥
स्वर सहित पद पाठहरि॑म् । हि । योनि॑म् । अ॒भि । ये । स॒म्ऽअस्व॑रन् । हि॒न्वन्त॑: । ह॒री इति॑ । दि॒व्यम् । यथा॑ । सद॑: ॥ आ । यम् । पृ॒णन्ति॑ । हरि॑ऽभि: । न । धे॒नव॑: । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । हरि॑ऽवन्तम् ।अ॒र्च॒त॒ ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
हरिं हि योनिमभि ये समस्वरन्हिन्वन्तो हरी दिव्यं यथा सदः। आ यं पृणन्ति हरिभिर्न धेनव इन्द्राय शूषं हरिवन्तमर्चत ॥
स्वर रहित पद पाठहरिम् । हि । योनिम् । अभि । ये । सम्ऽअस्वरन् । हिन्वन्त: । हरी इति । दिव्यम् । यथा । सद: ॥ आ । यम् । पृणन्ति । हरिऽभि: । न । धेनव: । इन्द्राय । शूषम् । हरिऽवन्तम् ।अर्चत ॥३०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
विषय - हरिवन्तं शूषम्
पदार्थ -
१. (ये) = जो उपासक (हि) = निश्चय से (हरिम्) = दुःखों का हरण करनेवाले (योनिम्) = सबके मूल कारण प्रभुको (अभि समस्वरन) = प्रातः-सायं सम्यक् स्तुत करते हैं, (यथा) = जिस स्तवन के द्वारा ये उपासक (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (दिव्यं सदः) = देवों के निवासस्थानभूत यागगृह में (हिन्वन्तः) = प्रेरित करते हैं। प्रभु-स्तवन के द्वारा इन्द्रियों सदा उत्तम कर्मों को करनेवाली होती हैं। वे यज्ञगृहों की ओर जाती हैं। उनका झुकाव क्लबों व चित्रगृहों की ओर नहीं रहता। २. यह उपासक तो वह बन जाता है (यम्) = जिसको (धेनवः न) = गौएँ जैसे दूध से बछड़े को प्रीणित करती हैं, इसी प्रकार इसे वेद-धेनुएँ (हरिभिः) = ज्ञानरश्मिरूप दुग्धों से (आपूणन्ति) = पूरित करती है, अत: हे मनुष्यो! तुम (इन्द्राय) = प्रभु की प्राप्ति के लिए (हरिवन्तम्) = प्रकाश की रश्मियोंवाले (रक्षणम्) = बल को अर्थत-पूजित करो। प्रकाश की रश्मियों व बल को सम्पादित करते हुए तुम प्रभु को प्राप्त कर सकोगे।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। इन्द्रियों को यज्ञगृहों, न कि क्लबों की ओर प्रेरित करें। प्रकाश की रश्मियों व बल का सम्पादन करते हुए प्रभु को प्राप्त करें।
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