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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्। एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । सु॒सु॒म । हि । ते॒ । इन्द्र॑ । सोम॑म् । पिब॑ । इ॒मम् । आ । इ॒दम् । ब॒र्हि: । स॒द॒: । मम॑ ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम्। एदं बर्हिः सदो मम ॥
स्वर रहित पद पाठआ । याहि । सुसुम । हि । ते । इन्द्र । सोमम् । पिब । इमम् । आ । इदम् । बर्हि: । सद: । मम ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
विषय - हृदयासन पर प्रभु को बिठाना
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (आयाहि) = आइए। (ते) = आपकी प्राप्ति के लिए हि-ही (सोमं सुषुम) = हमने सोम का सम्पादन किया है। (इमम्) = इस सोम को (पिब) = पीजिए। आपने ही इस सोम को इस शरीर में सुरक्षित करना है। २. (इदम्) = इस (मम) = मेरे (बर्हिः) = हदयान्तरिक्ष में (आसद:) = आप आसीन होइए। जब प्रभु [महादेव] मेरे हृदय में आसीन होंगे तब वहाँ कामदेव का सम्भव ही न होगा और इसप्रकार सोम का रक्षण क्योंकर न होगा?
भावार्थ - हम हृदय में सदा प्रभु का स्मरण करें। इसप्रकार वासना के आक्रमण से बचकर सोम का रक्षण कर पाएँ।
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