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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॒ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । हरी॒ इति॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । न॒: । शृ॒णु॒ ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा ब्रह्मयुजा हरी वहतामिन्द्र केशिना। उप ब्रह्माणि नः शृणु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । ब्रह्मऽयुजा । हरी इति । वहताम् । इन्द्र । केशिना । उप । ब्रह्माणि । न: । शृणु ॥३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
विषय - ब्रह्मयुजा केशिना [हरी]
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो! (त्वा) = आपको (हरी) = हमारे ये इन्द्रियाश्व (आवहताम्) = प्राप्त कराएँ। वे इन्द्रियाश्व जोकि (ब्रह्मयुजा) = ज्ञान के साथ मेलवाले हैं और इसप्रकार केशिना प्रकाश की रश्मियोंवाले है। २. हे प्रभो! आप हमें उप-समीप प्राप्त होइए-हमारे हृदयासन को स्वीकार कौजिए और न:-हमसे की जानेवाली ब्रह्माणि-ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुतिवाणियों को शृणु-सुनिए।
भावार्थ - हम अपनी इन्द्रियों को यथासम्भव ज्ञानप्रासि में लगाएँ। हदय में प्रभु का ध्यान करें। यही अपने को वासनाओं के आक्रमण से बचाने का मार्ग है।
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