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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३२

    अपाः॒ पूर्वे॑षां हरिवः सु॒ताना॒मथो॑ इ॒दं सव॑नं॒ केव॑लं ते। म॑म॒द्धि सोमं॒ मधु॑मन्तमिन्द्र स॒त्रा वृ॑षं ज॒ठर॒ आ वृ॑षस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपा॑: । पूर्वे॑षाम् । ह॒रि॒ऽव॒: । सु॒ताना॑म् । अथो॒ इति॑ । इ॒दम् । सव॑नम् । केव॑लम् । ते॒ ॥ म॒म॒ध्दि । सोम॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्रा । वृ॒ष॒न् । ज॒ठरे॑ । आ । वृ॒ष॒स्व॒ ॥३२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाः पूर्वेषां हरिवः सुतानामथो इदं सवनं केवलं ते। ममद्धि सोमं मधुमन्तमिन्द्र सत्रा वृषं जठर आ वृषस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपा: । पूर्वेषाम् । हरिऽव: । सुतानाम् । अथो इति । इदम् । सवनम् । केवलम् । ते ॥ ममध्दि । सोमम् । मधुऽमन्तम् । इन्द्र । सत्रा । वृषन् । जठरे । आ । वृषस्व ॥३२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 32; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव! तूने (पूर्वेषाम्) = इन पालन व पूरण करनेवाले (सुतानाम्) = उत्पन्न हुए-हुए सोमकणों का (अपा:) = पान किया है। (अथ उ) = और निश्चय से (इदं सवनम्) = यह सोम का उत्पादन (केवलं ते) = शुद्ध तेरे ही उत्कर्ष के लिए है। २. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (मधुमन्तं सोमम्) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले इस सोम को (ममद्धि) = [पिब सा०] पीनेवाला बन-इसे शरीर में ही व्याप्त कर। हे (वृषन्) = शक्तिशालिन्! तू (सत्रा) = सदा (जठरे) = अपने अन्दर (आवृषस्व) = इस सोम का सेचन करनेवाला बन।

    भावार्थ - शरीर में उत्पन्न किये गये सोमकणों का शरीर में रक्षण होने पर ही जीवन मधुर व शक्तिशाली बनता है। सोम-रक्षण द्वारा शरीरस्थ 'पाँचों भूतों व मन, बुद्धि, अहंकार' इन आठों को ठीक रखनेवाला यह व्यक्ति 'अष्टक' बनता है। यह सोम-रक्षण के महत्त्व को इसप्रकार प्रकट करता है।

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