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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३२

    आ रोद॑सी॒ हर्य॑माणो महि॒त्वा नव्यं॑नव्यं हर्यसि॒ मन्म॒ नु प्रि॒यम्। प्र प॒स्त्यमसुर हर्य॒तं गोरा॒विष्कृ॑धि॒ हर॑ये॒ सूर्या॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । रोद॑सी॒ इति॑ । हर्य॑माण: । म॒हि॒ऽत्वा । नव्य॑म्ऽनव्यम् । ह॒र्य॒सि॒ । मन्म॑ ।नु । प्रि॒यम् ॥ प्र । प॒स्त्य॑म् । अ॒सु॒र॒ । ह॒र्य॒तम् । गो: । आ॒वि: । कृ॒धि॒ । हर॑ये । सूर्या॑य ॥३२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रोदसी हर्यमाणो महित्वा नव्यंनव्यं हर्यसि मन्म नु प्रियम्। प्र पस्त्यमसुर हर्यतं गोराविष्कृधि हरये सूर्याय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रोदसी इति । हर्यमाण: । महिऽत्वा । नव्यम्ऽनव्यम् । हर्यसि । मन्म ।नु । प्रियम् ॥ प्र । पस्त्यम् । असुर । हर्यतम् । गो: । आवि: । कृधि । हरये । सूर्याय ॥३२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 32; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १.हे प्रभो! आप अपनी (महित्वा) = महिमा से (रोदसी) = इस द्यावापृथिवी में (आहर्यमाणः) = सर्वत्र व्याप्तिवाले हैं। सब पदार्थों में आपकी महिमा का दर्शन होता है। इन द्यावापृथिवी व लोक लोकान्तरों का निर्माण करके (नु) = अब (नव्यम्) = अत्यन्त स्तुत्य [नु स्तुतौ] (नव्यम्) = [नव गतौ]-कर्मों का उपदेश देनेवाले (मन्म) = ज्ञान को (हर्यसि) = आप प्राप्त कराते हैं। यह ज्ञान (प्रियम्) = प्रीति का जनक होता है-आनन्द देनेवाला है। २. हे असुर-ज्ञान देकर वासनाओं को विक्षिप्त करनेवाले प्रभो! [असु क्षेपणे] आप (हरये) = औरों के दुःख को हरनेवाले (सूर्याय) = निरन्तर गतिशील पुरुष के लिए (गो:) = इस वेदवाणी के (हर्यतम्) = कान्त-चाहने योग्य (पस्त्यम्) = गृह को (प्र आविष्कृधि) = प्रकर्षण आविष्कृत करते हैं। जो भी हरि व सूर्य बनता है वही इस वेदवाणीरूप गृह को प्राप्त करता है।

    भावार्थ - प्रभु की महिमा सर्वत्र व्याप्त है। प्रभु लोक-लोकान्तरों का निर्माण करके हमारे लिए प्रशस्त ज्ञान प्राप्त कराते हैं। जो भी पुरुष 'हरि व सूर्य' बनते हैं, प्रभु उनके लिए वेदज्ञान का प्रकाश करते हैं।

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