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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१

    उ॒त स्म॒ सद्म॑ हर्य॒तस्य॑ प॒स्त्योरत्यो॒ न वाजं॒ हरि॑वाँ अचिक्रदत्। म॒ही चि॒द्धि धि॒षणाह॑र्य॒दोज॑सा बृ॒हद्वयो॑ दधिषे हर्य॒तश्चि॒दा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्म॒ । सद्म॑ । ह॒र्य । त॒स्य॑ । प॒स्त्यो॑: । न । वाज॑म् । हरि॑ऽवान् । अ॒चि॒क्र॒दत् ॥ म॒ही । चि॒त् । हि । धि॒ष्णा॑ । अह॑र्यत् । ओज॑सा । बृ॒हत् । वय॑: । द॒धि॒षे॒ । ह॒र्य॒त: । चि॒त् । आ ॥३१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्म सद्म हर्यतस्य पस्त्योरत्यो न वाजं हरिवाँ अचिक्रदत्। मही चिद्धि धिषणाहर्यदोजसा बृहद्वयो दधिषे हर्यतश्चिदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्म । सद्म । हर्य । तस्य । पस्त्यो: । न । वाजम् । हरिऽवान् । अचिक्रदत् ॥ मही । चित् । हि । धिष्णा । अहर्यत् । ओजसा । बृहत् । वय: । दधिषे । हर्यत: । चित् । आ ॥३१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. (उत) = और (हरिवान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोवाला पुरुष (हर्यतस्य) = गति देनेवाले कान्त सोम के (पस्त्योः) = द्यावापृथिवी में-मस्तिष्क व शरीर में सब-गृह को-निवासस्थान को (अचिक्रदत् स्म) = प्रार्थित करता है। उसी प्रकार प्रार्थित करता है (न) = जैसेकि अत्यः सतत गमनशील (अश्व वाजम्) = संग्राम को चाहता है। २. सोम का मस्तिष्क व शरीर में निवास स्थान बनानेवाले इस पुरुष की मही चित्-निश्चय से उपासना की मनोवृत्तिवाली (धिषणा) = बुद्धि (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (आहर्यत्) = उस प्रभु की ओर गतिवाली होती है। हदय को उपासनावाला, मस्तिष्क को ज्ञान के प्रकाशवाला व शरीर को ओजस्वी बनाकर यह प्रभु की ओर चलता है। इस हर्यतः गतिमय कान्त जीवनवाले पुरुष के (बृहद् वयः) = उत्कृष्ट जीवन को हे प्रभो! आप ही (चित्) = निश्चय से (दधिषे) = धारण करते हैं।

    भावार्थ - हम सोम को शरीर में सुरक्षित करके उत्तम मस्तिष्क व शरीर को प्राप्त करें। उपासना, ज्ञान व ओज को धारण करते हुए प्रभु की ओर चलें। प्रभु हमें उत्कृष्ट जीवन प्राप्त कराएंगे। अगले सूक्त के ऋषि-देवता पूर्ववत् ही हैं -

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