अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
स्रुवे॑व यस्य॒ हरि॑णी विपे॒ततुः॒ शिप्रे॒ वाजा॑य॒ हरि॑णी॒ दवि॑ध्वतः। प्र यत्कृ॒ते च॑म॒से मर्मृ॑ज॒द्धरी॑ पी॒त्वा मद॑स्य हर्य॒तस्यान्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठस्रुवा॑ऽइव । यस्य॑ । हरि॑णी॒ इति॑ । वि॒ऽपे॒ततु॑: । शि॒प्रे॒ इति॑ । वाजा॒य । हरि॑णी॒ इति॑ । दवि॑ध्वत: ॥ प्र । यत् । कृ॒ते । च॒म॒से । मर्मृ॑जत् । हरी॒ इति॑ । पी॒त्वा । मद॑स्य । ह॒र्य॒तस्य॑ । अन्ध॑स: ॥३१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
स्रुवेव यस्य हरिणी विपेततुः शिप्रे वाजाय हरिणी दविध्वतः। प्र यत्कृते चमसे मर्मृजद्धरी पीत्वा मदस्य हर्यतस्यान्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठस्रुवाऽइव । यस्य । हरिणी इति । विऽपेततु: । शिप्रे इति । वाजाय । हरिणी इति । दविध्वत: ॥ प्र । यत् । कृते । चमसे । मर्मृजत् । हरी इति । पीत्वा । मदस्य । हर्यतस्य । अन्धस: ॥३१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
विषय - इन्द्रियों का परिमार्जन
पदार्थ -
१. (यस्य) = जिसके (हरिणी) = [ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी-प० १.१] ऋक् और साम-विज्ञान व भक्ति-स्(त्रु इव) = दो खुवों के समान-यज्ञपात्रों के समान (विपेततुः) = विशिष्ट गतिवाले होते हैं, अर्थात् जिसके जीवन में विज्ञान व भक्ति का समन्वय होता है। २. जिसके (शिप्रे) = हनू और नासिका (वाजाय) = शक्ति-वृद्धि के लिए (हरिणी) = रोगों व वासनाओं का हरण करनेवाले होकर (दविध्वत:) = इन रोगों व वासनाओं को कम्पित करके दूर करते हैं। हनू का चर्वणरूप कार्य ठीक से होने पर रोग नहीं आते तथा नासिका का प्राणायामरूप कार्य ठीक से होने पर वासनाओं का विनाश होता है। ३. इस मन के वासनाशून्य होने पर (हर्यतस्य) = अत्यन्त कान्त-कमनीय (मदस्य) = उल्लासजनक (अन्धसः) = सोम का (पीत्वा) = पान करके इस (कृते चमसे) = संस्कृत शरीर में (यत्) = जो (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व हैं, उनको (प्रमर्मृजत्) = अच्छी प्रकार शुद्ध कर डालता है। सुरक्षित सोम इन्द्रियों की शक्ति को दीप्त करनेवाला होता है।
भावार्थ - हमारे जीवन-यज्ञ में विज्ञान व भक्ति का समन्वय हो। हम खूब चबाकर भोजन करते हुए व्याधिशून्य बनें, प्राणायाम द्वारा निर्मल मनवाले [आधिशून्य] बनें। सोमपान द्वारा, संस्कृत शरीर में दीस इन्द्रियोंवाले हों।
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