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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
    सूक्त - अष्टकः देवता - हरिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३३

    ऊ॒ती श॑चीव॒स्तव॑ वी॒र्येण॒ वयो॒ दधा॑ना उ॒शिज॑ ऋत॒ज्ञाः। प्र॒जाव॑दिन्द्र॒ मनु॑षो दुरो॒णे त॒स्थुर्गृ॒णन्तः॑ सध॒माद्या॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒ती । श॒ची॒ऽव॒: । तव॑ । वी॒र्ये॑ण । वय॑: । दधा॑ना: । उ॒शिज॑: । ऋ॒त॒ऽज्ञा: ॥ प्र॒जाऽव॑त् । इ॒न्द्र॒ । मनु॑ष: । दु॒रो॒णे । त॒स्थु: । गृ॒णन्त॑: । स॒ध॒ऽमा॒द्या॑स: ॥३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊती शचीवस्तव वीर्येण वयो दधाना उशिज ऋतज्ञाः। प्रजावदिन्द्र मनुषो दुरोणे तस्थुर्गृणन्तः सधमाद्यासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊती । शचीऽव: । तव । वीर्येण । वय: । दधाना: । उशिज: । ऋतऽज्ञा: ॥ प्रजाऽवत् । इन्द्र । मनुष: । दुरोणे । तस्थु: । गृणन्त: । सधऽमाद्यास: ॥३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 33; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (शचीव:) = शक्तिमन् प्रभो ! (तव ऊती) = आपके रक्षण के द्वारा तथा [तव] (वीर्येण) = आपकी शक्ति के द्वारा (उशिज:) = मेधावी ऋतज्ञजीवन में ऋत के अनुसार [नियमित] कार्यों को करनेवाले लोग (वयः दधाना) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करते हैं। २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! 'उशिक ऋतज्ञ' गृणन्तः आपका स्तवन करते हुए (सधमाद्यास:) = और आपके साथ आनन्द का अनुभव करते हुए (मनुष: दुरोणे) = एक विचारशील पुरुष के [दुर्-बुराई, ओण-अपनयन] अपनीत मलवाले शरीर-गृह में प्रजावत् तस्थुः सब शक्तियों के विकास [प्रजन्-प्रादुर्भाव] के साथ स्थित होते हैं।

    भावार्थ - हम मेधावी व समय पर ठीक कार्यों को करनेवाले बनकर प्रभु से रक्षण व शक्ति को प्राप्त करते हुए उत्कृष्ट जीवन को धारण करें। प्रभु-स्तवन करते हुए हम प्रभु-उपासन में आनन्द का अनुभव करें और इस पवित्र शरीर-गृह में सब शक्तियों के विकास के साथ स्थित हों। यह प्रभु-स्तवन करनेवाला व प्रभु के साथ आनन्द का अनुभव करनेवाला 'गृत्स-मद' अगले सूक्त का ऋषि है अथ चतुर्थोऽनुवाकः।

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