अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
यो जा॒त ए॒व प्र॑थ॒मो मन॑स्वान्दे॒वो दे॒वान्क्रतु॑ना प॒र्यभू॑षत्। यस्य॒ शुष्मा॒द्रोद॑सी॒ अभ्य॑सेतां नृ॒म्णस्य॑ म॒ह्ना स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय:। जा॒त: । ए॒व । प्र॒थ॒म: । मन॑स्वान् । दे॒व: । दे॒वान् । क्रतु॑ना । प॒रि॒ऽअभू॑षत् ॥ यस्य॑ । शुष्मा॑त् । रोद॑सी॒ इति॑ । अभ्य॑सेताम् । नृ॒म्णस्य॑ । म॒ह्ना । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो जात एव प्रथमो मनस्वान्देवो देवान्क्रतुना पर्यभूषत्। यस्य शुष्माद्रोदसी अभ्यसेतां नृम्णस्य मह्ना स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय:। जात: । एव । प्रथम: । मनस्वान् । देव: । देवान् । क्रतुना । परिऽअभूषत् ॥ यस्य । शुष्मात् । रोदसी इति । अभ्यसेताम् । नृम्णस्य । मह्ना । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र
पदार्थ -
१. (सः इन्द्रः) = प्रभु वे हैं (यः जातः एव) = जो सदा से प्रादुर्भूत हैं। प्रभु 'कभी जन्म लेते हों' ऐसी बात नहीं। वे सदा से हैं। (प्रथम:) = वे अधिक-से-अधिक विस्तारवाले हैं। (मनस्वान्) = ज्ञानवाले हैं। (देवः) = ये दिव्य गुणयुक्त प्रभु (देवान्) = सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र आदि देवों को (क्रतुना) = शक्ति से (पर्यभूषत्) = अलंकृत करते हैं। प्रभु की महिमा से ही ये सब देव देवत्व को प्राप्त करते हैं। २. (यस्य) = जिनके (शुष्मात) = बल से (रोदसी) = द्यावापृथिवी (अभ्यसेताम्) = भयभीत हो उठते हैं, हे (जनास:) = लोगो! (नम्णस्य) = बल की (मह्ना) = महिमा से (सः इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु हैं।'भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य:। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः' प्रभु की शक्ति के भय से ही अग्नि आदि देव अपना-अपना कार्य ठीक से कर रहे हैं।
भावार्थ - प्रभु सदा से हैं. ये ही देवों को देवत्व प्राप्त कराते हैं। प्रभु की शक्ति की महिमा से ही सारे सूर्य आदि देव अपनी व्यवस्था में चल रहे हैं।
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