अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 11
यः श्म्ब॑रं॒ पर्व॑तेषु क्षि॒यन्तं॑ चत्वारिं॒श्यां श॒रद्य॒न्ववि॑न्दत्। ओ॑जा॒यमा॑नं॒ यो अहिं॑ ज॒घान॒ दानुं॒ शया॑नं॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । शम्ब॑रम् । पर्व॑तेषु । क्षि॒यन्त॑म् । च॒त्वा॒रिं॒श्याम् । श॒रदि॑ । अ॒नु॒ऽअवि॑न्दत् ॥ ओ॒जा॒यमा॑नम् । य: । अहि॑म् । ज॒घान॑ । दानु॑म् । शया॑नम् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यः श्म्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत्। ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । शम्बरम् । पर्वतेषु । क्षियन्तम् । चत्वारिंश्याम् । शरदि । अनुऽअविन्दत् ॥ ओजायमानम् । य: । अहिम् । जघान । दानुम् । शयानम् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 11
विषय - पर्वतवासी शम्बर का विनाश
पदार्थ -
१. अविद्या पाँच पर्वोवाली होने से पर्वत' है। इस अविद्या-पर्वत में ही ईर्ष्या का निवास है। अज्ञान में फंसा मनुष्य ईर्ष्या-द्वेष में फँसा रहता है। आचत्वारिंशत: संपूर्णता' इस चरक वाक्य के अनुसार मनुष्य ४० वर्ष में सब शक्तियों के परिपाक को प्रास कर लेता है। उस समय भी वह इस ईष्या को अपना पीछा करता हुआ देखता है। (यः) = जो (शम्बरम्) = [श-वर] शान्ति पर पर्दा डाल देनेवाली, (पर्वतेषु क्षियन्तम्) = अविद्या-पर्वत में निवास करती हुई ईर्ष्या को (चत्वारिंश्यां शरदि) = चालीसवें वर्ष में भी (अन्यविन्दत्) = अपना पीछा करता हुआ पाता है और इस ईर्ष्या को विनष्ट करने के लिए यत्नशील होता है। २. उस समय (ओजायमानम्) = अत्यन्त ओजस्वी [बलवान्] की तरह आचरण करती हुई, (अहिम्) = [आहन्ति]-विनाशकारिणी, (शयानम्) = हमारे अन्दर छिपे रूप में रहनेवाली (दानम्) = शक्तियों को छिन्न करनेवाली इस ईर्ष्या को (य: जघान) = जो विनष्ट करते हैं, हे (जनास:) = लोगो। (सः इन्द्रः) = वे ही प्रभु हैं। प्रभु ही हमें ईर्ष्या द्वेष से ऊपर उठने के योग्य बनाते हैं।
भावार्थ - अज्ञान के कारण ईर्ष्या से ऊपर उठना सम्भव नहीं होता। इस अति प्रबल भी ईया द्वेष की भावना को प्रभु-कृपा से हम पराजित कर पाते हैं।
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