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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४
    48

    यः श्म्ब॑रं॒ पर्व॑तेषु क्षि॒यन्तं॑ चत्वारिं॒श्यां श॒रद्य॒न्ववि॑न्दत्। ओ॑जा॒यमा॑नं॒ यो अहिं॑ ज॒घान॒ दानुं॒ शया॑नं॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । शम्ब॑रम् । पर्व॑तेषु । क्षि॒यन्त॑म् । च॒त्वा॒रिं॒श्याम् । श॒रदि॑ । अ॒नु॒ऽ‍अवि॑न्दत् ॥ ओ॒जा॒यमा॑नम् । य: । अहि॑म् । ज॒घान॑ । दानु॑म् । शया॑नम् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः श्म्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत्। ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । शम्बरम् । पर्वतेषु । क्षियन्तम् । चत्वारिंश्याम् । शरदि । अनुऽ‍अविन्दत् ॥ ओजायमानम् । य: । अहिम् । जघान । दानुम् । शयानम् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिसने (पर्वतेषु) बादलों में (क्षियन्तम्) रहते हुए (शम्बरम्) चलनेवाले पानी को (चत्वारिंश्याम्) भिक्षा नाश करनेवाले (शरदि) वर्ष में (अन्वविन्दत्) निरन्तर पहुँचाया है। (यः) जिसने (ओजायमानम्) अत्यन्त बल करते हुए, (दानुम्) छेदनेवाले, (शयानम्) पड़े हुए (अहिम्) सब ओर से नाश करनेवाले [विघ्न] को (जघान) नष्ट किया है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥१॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सूखा के समय अकाल में मेह बरसाकर अन्न उत्पन्न करता और क्लेशों का नाश करके शारीरिक और आत्मिक सुख पहुँचाता है, उसीकी उपासना किया करो ॥११॥

    टिप्पणी

    [सूचना−मन्त्र १२, १६, १७ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं हैं और इनका पदपाठ गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई के पुस्तक में भी नहीं दिया। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से संग्रह करके स्वरों को यथासम्भव शोधकर यहाँ लिखते हैं, बुद्धिमान् जन विचार लेवें]११−(यः) इन्द्रः परमेश्वरः (शम्बरम्) कोररन्। उ०४।१। शम्ब सम्बन्धने गतौ च-अरन्, यद्वा शम्+वृञ् वरणे-अप्, वस्य बः। शम्बरो मेघः-निघ०१।१०। शम्बरमुदकम्-१।१२। शम्बरं बलम्-२।९। गतिशीलं जलम् (पर्वतेषु) मेघेषु (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (चत्वारिंश्याम्) अशूप्रुषिलटि०। उ०१।११। चत याचने-क्वन्, टाप्+रिश हिंसायाम्-क, गौरादित्वाद् ङीष्, छान्दसो नुम्। चत्वाया भिक्षाया रिश्यां नाशिकायाम् (शरदि) वत्सरे (अन्वविन्दत्) अन्तर्गतण्यर्थः। निरन्तरं प्रापितवान् (ओजायमानम्) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा०३।१।११। ओजस्-क्यङ् ओजसोऽप्सरसो नित्यमितरेषां विभाषया। वा० पा०३।१।११”। सकारलोपः। ओजो बलम्, तद्वदाचरन्तम्। अतिशयितबलयुक्तम् (यः) (अहिम्) म०३। आहन्तारं समन्ताद् नाशयितारं विघ्नम् (जघान) नाशितवान् (दानुम्) दाभाभ्यां नुः। उ०३।३२। दाप् लवने-नु। छेत्तारम् (शयानम्) कृतशयनमिव वर्तमानम्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    पर्वतवासी शम्बर का विनाश

    पदार्थ

    १. अविद्या पाँच पर्वोवाली होने से पर्वत' है। इस अविद्या-पर्वत में ही ईर्ष्या का निवास है। अज्ञान में फंसा मनुष्य ईर्ष्या-द्वेष में फँसा रहता है। आचत्वारिंशत: संपूर्णता' इस चरक वाक्य के अनुसार मनुष्य ४० वर्ष में सब शक्तियों के परिपाक को प्रास कर लेता है। उस समय भी वह इस ईष्या को अपना पीछा करता हुआ देखता है। (यः) = जो (शम्बरम्) = [श-वर] शान्ति पर पर्दा डाल देनेवाली, (पर्वतेषु क्षियन्तम्) = अविद्या-पर्वत में निवास करती हुई ईर्ष्या को (चत्वारिंश्यां शरदि) = चालीसवें वर्ष में भी (अन्यविन्दत्) = अपना पीछा करता हुआ पाता है और इस ईर्ष्या को विनष्ट करने के लिए यत्नशील होता है। २. उस समय (ओजायमानम्) = अत्यन्त ओजस्वी [बलवान्] की तरह आचरण करती हुई, (अहिम्) = [आहन्ति]-विनाशकारिणी, (शयानम्) = हमारे अन्दर छिपे रूप में रहनेवाली (दानम्) = शक्तियों को छिन्न करनेवाली इस ईर्ष्या को (य: जघान) = जो विनष्ट करते हैं, हे (जनास:) = लोगो। (सः इन्द्रः) = वे ही प्रभु हैं। प्रभु ही हमें ईर्ष्या द्वेष से ऊपर उठने के योग्य बनाते हैं।

    भावार्थ

    अज्ञान के कारण ईर्ष्या से ऊपर उठना सम्भव नहीं होता। इस अति प्रबल भी ईया द्वेष की भावना को प्रभु-कृपा से हम पराजित कर पाते हैं।

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    भाषार्थ

    (पर्वतेषु) पर्वतों में (क्षियन्तम्) निवास किये हुए (शम्बरम्) जलमय हिमपर्वत को, (चत्वारिंश्याम्) चालीसवीं (शरदि) शरद् ऋतु में अर्थात् ४० वर्षों के पश्चात् (यः) जो (अविन्दत्) प्राप्त करता है, तथा (यः) जो (ओजायमानम्) उमड़े हुए, (दानुम्) जल देने की प्रवृत्तिवाले, (शयानम्) परन्तु अन्तरिक्ष में सोए पड़े से, अर्थात् जो अभी जलदान नहीं करता, उस (अहिम्) मेघ का (जघान) हनन करता है—(जनासः) हे प्रजाजनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।

    टिप्पणी

    [शम्बरम्=उदकम् (निघं० १.१२)। मन्त्र में “शम्बर” पद द्वारा पर्वतों की घटियों में जमे हिमपर्वतों (Glaciers) का वर्णन हुआ है। अतिशीत के कारण पर्वत-घाटियों में बहती नदी जब हिममय हो जाती है, तो उसे हिमपर्वत (Glacier) कहते हैं। यह हिमपर्वत जलमय होते हैं। मानो इन्होंने इन पर्वतों में अपना निवासगृह बना लिया। क्योंकि ये वर्षों तक इन घाटियों में लेटे पड़े रहते है। लगभग ४० शरद्-ऋतुओं में एक हिम-पर्वत बन पाता है।] अथवा मन्त्र ११ का अभिप्रायः— जिसने, शान्तिव्रत को वरण किये हुए, पर्वतों में अभ्यास के लिए निवास करते हुए आदित्य ब्रह्मचारी को ४०वें वर्ष में प्राप्त किया; और जिसने ओजप्रकट करते हुए, जड़ काट देनेवाले, चित्त में सोए पड़े, अर्थात् जो अभी जागरितावस्था में उद्बुद्धावस्था में नहीं आया ऐसे (अहिम्) पाप-सांप का हनन कर दिया, वह परमेश्वर है। [शम्बरम्=शम् (शान्ति)+बरम्=(वरम्=वरण करना, स्वीकार करना)। पर्वतेषु=उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां, धिया विप्रो अजायत (यजु० २६.१५)। इस प्रकार पर्वतों में अभ्यास करने का विधान है। चत्वारिश्यां शरदि=ब्राह्मण का उपनयन आठवें वर्ष की आयु में होना चाहिए। ऐसा आश्वलायन गृह्यसूत्रों में लिखा है। यथा अष्टमे ब्राह्मणमुपनयेत् (आश्व० १.१९.१)। तदनन्तर ४० वर्ष ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके ब्रह्मचारी “आदित्य ब्रह्मचारी” बनता है। “शरत्” का अर्थ है—“विशीर्ण करनेवाली ऋतु”। ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यकाल में अपनी अविद्या और तज्जन्य पापों को विशीर्ण करता रहता है, इसलिए इस काल को शरत् कहा है। दानुम्=दाप् लवणे। पाप जीवन की जड़ काट कर उसे सुखा देता है, इसलिए वह दानु है। शयानम्=संस्काररूप में सोए पाप-संस्कारों के हनन करने को सूचित किया है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    He who finds the vapours of water hidden in the cloud on the fortieth day of autumn (or in the fortieth autumn) and breaks the cloud, heavy with water for showers yet sleeping like a giant, thus releasing the rain- showers: such, O people, is Indra, the mighty Sun.

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    Translation

    He—who in the Year (Sharadi) of draught when even begging marred (chatvarinshyam) discovers the water abiding in the clouds and who over powers the cloud which catches vigour floats in the sky and rends the draught, O men is Indra.

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    Translation

    He—who in the Year (Sharadi) of draught when even begging marred (chatvarinshyam) discovers the water abiding in the clouds and who over powers the cloud which catches vigor floats in the sky and rends the draught, O men is Indra.

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    Translation

    O men, He is the All-powerful Lord, Who resets the moon at the same spot in the sky in the 40th year of her motion through months of two parvas each. Who destroys the passion of lust, lying hidden crooked in the heart like a serpent and affecting the vital parts.

    Footnote

    The verse may be applied to the Aditya Brahmchari who attains complete grasp of the Vedic lore in 40 years of celibacy, suppressing all passions of lust, distracting him from the right path.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    [सूचना−मन्त्र १२, १६, १७ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं हैं और इनका पदपाठ गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई के पुस्तक में भी नहीं दिया। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से संग्रह करके स्वरों को यथासम्भव शोधकर यहाँ लिखते हैं, बुद्धिमान् जन विचार लेवें]११−(यः) इन्द्रः परमेश्वरः (शम्बरम्) कोररन्। उ०४।१। शम्ब सम्बन्धने गतौ च-अरन्, यद्वा शम्+वृञ् वरणे-अप्, वस्य बः। शम्बरो मेघः-निघ०१।१०। शम्बरमुदकम्-१।१२। शम्बरं बलम्-२।९। गतिशीलं जलम् (पर्वतेषु) मेघेषु (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (चत्वारिंश्याम्) अशूप्रुषिलटि०। उ०१।११। चत याचने-क्वन्, टाप्+रिश हिंसायाम्-क, गौरादित्वाद् ङीष्, छान्दसो नुम्। चत्वाया भिक्षाया रिश्यां नाशिकायाम् (शरदि) वत्सरे (अन्वविन्दत्) अन्तर्गतण्यर्थः। निरन्तरं प्रापितवान् (ओजायमानम्) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा०३।१।११। ओजस्-क्यङ् ओजसोऽप्सरसो नित्यमितरेषां विभाषया। वा० पा०३।१।११”। सकारलोपः। ओजो बलम्, तद्वदाचरन्तम्। अतिशयितबलयुक्तम् (यः) (अहिम्) म०३। आहन्तारं समन्ताद् नाशयितारं विघ्नम् (जघान) नाशितवान् (दानुम्) दाभाभ्यां नुः। उ०३।३२। दाप् लवने-नु। छेत्तारम् (शयानम्) कृतशयनमिव वर्तमानम्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যিনি (পর্বতেষু) মেঘমধ্যে (ক্ষিয়ন্তম্) থাকা (শম্বরম্) গতিশীল জলকে (চত্বারিংশ্যাম্) ভিক্ষানাশকারী (শরদি) বর্ষে (অন্ববিন্দৎ) নিরন্তর প্রদান/প্রেরণ করেছেন। (যঃ) যিনি (ওজায়মানম্) অত্যন্ত বলযুক্ত/শক্তিসম্পন্ন, (দানুম্) ছেদনকারী, (শয়ানম্) শায়িত (অহিম্) সকল দিক হতে নাশকারী [বিঘ্ন] কে (জঘান) নষ্ট করেছেন, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর] ॥১১॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মা খরার সময় মেঘ বর্ষণ করে অন্ন উৎপন্ন করেন এবং ক্লেশ নাশ করে শারীরিক ও আত্মিক সুখ আনয়ন করেন, তাঁরই উপাসনা করো ॥১১॥ [সূচনা−মন্ত্র ১২, ১৬, ১৭ ঋগ্বেদ আদি অন্য বেদে নেই এবং পদপাঠ গভর্নমেন্ট বুকডিপো বোম্বাই-এর পুস্তকেও নেই। আমি স্বামী বিশ্বেশ্বরানন্দ নিত্যানন্দ কৃত পদসূচী থেকে সংগ্রহ করে স্বরসমূহকে যথাসম্ভব শোধিত করে এখানে নিয়েছি, বুদ্ধিমানগণ বিচার করবেন]

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    भाषार्थ

    (পর্বতেষু) পর্বতে (ক্ষিয়ন্তম্) নিবাসিত (শম্বরম্) জলময় হিমপর্বতকে, (চত্বারিংশ্যাম্) চল্লিশতম (শরদি) শরৎ ঋতুতে অর্থাৎ ৪০ বর্ষের পর (যঃ) যিনি (অবিন্দৎ) প্রাপ্ত করেন, তথা (যঃ) যিনি (ওজায়মানম্) স্ফীত/উত্থিত, (দানুম্) জল প্রদানের প্রবৃত্তিযুক্ত, (শয়ানম্) কিন্তু অন্তরিক্ষে শায়িত, অর্থাৎ যা এখনও জলদান করে না, সেই (অহিম্) মেঘের (জঘান) হনন করেন—(জনাসঃ) হে প্রজাগণ! (সঃ ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।

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