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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४
    41

    यः स॒प्तर॑श्मिर्वृष॒भस्तुवि॑ष्मान॒वासृ॑ज॒त्सर्त॑वे स॒प्त सिन्धू॑न्। यो रौ॑हि॒णमस्फु॑र॒द्वज्र॑बाहु॒र्द्यामा॒रोह॑न्तं॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । स॒प्तऽर॑श्मि: । वृ॒ष॒भ: । तुवि॑ष्मान् । अ॒व॒ऽअसृ॑जत् । सर्त॑वे । स॒प्त । सिन्धू॑न् ॥ य: । रौ॒हि॒णम् । अस्‍फु॑रत् । वज्र॑बाहु: । द्याम् । आ॒ऽरोह॑न्तम् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवे सप्त सिन्धून्। यो रौहिणमस्फुरद्वज्रबाहुर्द्यामारोहन्तं स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । सप्तऽरश्मि: । वृषभ: । तुविष्मान् । अवऽअसृजत् । सर्तवे । सप्त । सिन्धून् ॥ य: । रौहिणम् । अस्‍फुरत् । वज्रबाहु: । द्याम् । आऽरोहन्तम् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 13
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सप्तरश्मिः) सात प्रकार की [शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्र] किरणोंवाले सूर्य के समान (यः) जिस (वृषभः) सुख की बरसा करनेवाले, (तुविष्मान्) बलवान् ने (सप्त) सात (सिन्धून्) बहते हुए समुद्रों [के समान भूर् आदि सात लोकों] को (सर्तवे) चलने के लिये (अवासृजत्) विमुक्त किया है। और (यः) जिस (वज्रबाहुः) वज्रसमान भुजाओं वाले [दृढ़ शरीरवाले वीरसदृश] ने (द्याम्) आकाश को (आरोहन्तम्) चढ़ते हुए (रौहिणम्) उपजानेवाले बादल को (अस्फुरत्) घुमड़ाया है [घेरा करके चलाया है], (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥१३॥

    भावार्थ

    भूर् आदि लोकों के लिये मन्त्र ३ का भावार्थ देखो। जैसे सूर्य अपनी परिधि के लोकों को आकर्षण में रखकर ठहराता है, वैसे ही परमेश्वर सूर्य आदि लोकों को नियम में रखकर चलाता है, और अनावृष्टि हटाकर मेह बरसाकर अन्न आदि उत्पन्न करता है, हे मनुष्यो ! उस परमेश्वर की आज्ञा में चलो ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(यः) इन्द्रः (सप्तरश्मिः) अ०९।।१। सप्त आदित्यरश्मयः-निरु०४।२६।शुक्लनीलपीतादिवर्णाः सप्तकिरणाः सन्ति यस्य सः। सूर्यलोक इव। (वृषभः) सुखस्य वर्षिता (तुविष्मान्) बलवान् (अवासृजत्) विमुक्तवान् (सर्तवे) गन्तुम् (सप्त) (सिन्धून्) म०३। स्यन्दमानान् समुद्रान् इव भूरादिसप्तलोकान्, संसारस्यावस्थाविशेषान् (यः) (रौहिणम्) रुहेश्च। उ०२।। रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च-इनन्, प्रज्ञादित्वादण्। रौहिणो मेघनाम-निघ०१।१०। उत्पादनशीलं मेघम् (अस्फुरत्) स्फुर संचलने। संचालितवान् (वज्रबाहुः) वज्रवत् सारभूताभ्यां बाहुभ्यामुपेतः शूरुपुरुष इव (द्याम्) आकाशम् (आरोहन्तम्) अधितिष्ठन्तम्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    रौहिणासुर-वध

    पदार्थ

    १. (य:) = जो सप्तरश्मि: गायत्री आदि सात छन्दों में ज्ञान की रश्मियों को देनेवाले हैं। (वृषभ:) = ज्ञान द्वारा सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं और (तुविष्यान्) = अत्यन्त प्रवृद्ध बलवाले हैं। हमारे जीवनों को (सर्तवे) = प्रवाहित करने के लिए (सप्त सिन्धून्) = सात छन्दों में प्रवाहित होनेवाली ज्ञान-नदियों को (अवासृजत्) = वासनाओं के बन्धन से मुक्त करते हैं, अर्थात् वासना-विनाश द्वारा हमारे जीवन में ज्ञान-प्रवाहों को प्रवाहित करते हैं। २. (य:) = जो (वज्रबाहु:) = वज्रहस्त प्रभु (रौहिणम्) = निरन्तर बढ़नेवाले और बढ़ते-बढ़ते (द्याम् आरोहन्तम्) = द्युलोक तक जा पहुँचनेवाले लोभ को (अस्फरत) = विनष्ट कर डालते हैं। हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्र:) = वे ही परमैश्वर्यशाली प्रभु है।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे अन्दर सप्त छन्दोमयी ज्ञान-नदियों को प्रवाहित करते हैं। इनको प्रवाहित करने के लिए ही वे विघ्नभूत लोभ को विनष्ट करते हैं।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (सप्तरश्मिः) सात रश्मियोंवाले सूर्य का स्वामी, (वृषभः) वर्षा करनेवाला, (तुविष्मान्) तथा बहुसम्पत्शाली परमेश्वर (सप्त सिन्धून्) सात प्रकार की नदियों को, (सर्तवे) प्रवाहित होने के लिए, (अवासृजत्) नीचे की ओर प्रकट करता है; और (यः) जिस (वज्रबाहुः) विद्युद्-वज्रधारी ने (द्याम्) द्युलोक की ओर (आरोहन्तम्) आरोहण करते हुए (रौहिणम्) मेघ को (अस्फुरत्) कम्पाकर भूमि पर फैंक दिया—(जनासः) हे प्रजाजनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।

    टिप्पणी

    [रौहिण=मेघ (निघं० १.१०)। तथा, सप्तरश्मिः=सप्तविध वैदिक छन्दों के द्वारा ज्ञान-रश्मियाँ देनेवाला। वृषभः=आनन्दरसवर्षी। सप्तसिन्धून=५ ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि। ज्ञानेन्द्रियों को “पञ्च स्रोतोम्बु” तथा “पञ्चबुद्ध्यादि” कहा है (श्वेता০ उप০ १.५)। सर्तवे=सात्विक जीवन में बहने के लिए। रौहिणम्=लालवर्णवाला रजोगुण। जो रजोगुण को योगी के मस्तिष्करूपी द्युलोक में चढ़ने नहीं देता, अपितु उसे निचले जीवन तक सीमित रखता है, वह परमेश्वर है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Who shines bright with seven-colour rays of light, mightily generous, immensely full of energy and power, and, breaking the clouds to rain showers, releases the seven floods of water, rivers and seas rolling and flowing, and who energises the moon and the cloud ascending towards the sun under the Rohini asterism, that, dear people, is Indra, the Sun, mighty with his arms of thunder and adamant.

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    Translation

    He—who for the sake of exchange of thought and expression makes seven cases of the grammatical operation of language, who like the sun possessing seven beams is the pourer happiness and is mighty who holding thunder-bolt in the cloud and atmospheric wind under His control moves the cloud (Rauhinam) mounting in the sky hither and thither O men, is Indira.

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    Translation

    He—who for the sake of exchange of thought and expression makes seven cases of the grammatical operation of language, who like the sun possessing seven beams is the pourer-happiness and is mighty, who holding thunder-bolt in the cloud and atmospheric wind under His control moves the cloud (Rauhinam) mounting in the sky hither and thither O men, is Indra.

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    Translation

    O people, He is the All-powerful Lord, Who, being equipped with seven fold powers of control, like the seven-beams of light of the Sun showerer of fortunes and All-powerful, Who with thunderbolt in kind, cuts off the banyan tree in the form of the universe, rising to the heavens.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(यः) इन्द्रः (सप्तरश्मिः) अ०९।।१। सप्त आदित्यरश्मयः-निरु०४।२६।शुक्लनीलपीतादिवर्णाः सप्तकिरणाः सन्ति यस्य सः। सूर्यलोक इव। (वृषभः) सुखस्य वर्षिता (तुविष्मान्) बलवान् (अवासृजत्) विमुक्तवान् (सर्तवे) गन्तुम् (सप्त) (सिन्धून्) म०३। स्यन्दमानान् समुद्रान् इव भूरादिसप्तलोकान्, संसारस्यावस्थाविशेषान् (यः) (रौहिणम्) रुहेश्च। उ०२।। रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च-इनन्, प्रज्ञादित्वादण्। रौहिणो मेघनाम-निघ०१।१०। उत्पादनशीलं मेघम् (अस्फुरत्) स्फुर संचलने। संचालितवान् (वज्रबाहुः) वज्रवत् सारभूताभ्यां बाहुभ्यामुपेतः शूरुपुरुष इव (द्याम्) आकाशम् (आरोहन्तम्) अधितिष्ठन्तम्। अन्यद् गतम् ॥

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