अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 16
जा॒तो व्यख्यत्पि॒त्रोरु॒पस्थे॒ भुवो॒ न वे॑द जनि॒तुः पर॑स्य। स्त॑वि॒ष्यमा॑णो॒ नो यो अ॒स्मद्व्र॒ता दे॒वानां॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठजा॒त: । वि । अ॒ख्य॒त् । पि॒त्रो: । उ॒पस्थे॑ । भु॒व॒: । न । वे॒द॒ । जनि॒तु: । परस्य॑ ॥ स्त॒वि॒ष्यमा॑ण: । नो इति॑ । य: । अ॒स्मत् । व्र॒ता । दे॒वाना॑म् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
जातो व्यख्यत्पित्रोरुपस्थे भुवो न वेद जनितुः परस्य। स्तविष्यमाणो नो यो अस्मद्व्रता देवानां स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठजात: । वि । अख्यत् । पित्रो: । उपस्थे । भुव: । न । वेद । जनितु: । परस्य ॥ स्तविष्यमाण: । नो इति । य: । अस्मत् । व्रता । देवानाम् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (जातः) प्रकट होकर (पित्रोः) [हमारे] माता-पिता के (उपस्थे) समीप में (वि अख्यत्) व्याख्यात हुआ है, और (परस्य) [अपने से] दूसरे (जनितुः) जनक और (भुवः) जननी को (न) नहीं (वेद) जानता है, और (देवानाम्) विद्वानों को (स्तविष्यमाणः) स्तुति किया गया [जो] (नो) अभी ही (अस्मत्) हमारे (व्रता) कर्मों को [जानता है], (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥१६॥
भावार्थ
जो अनादि होने से हमारे पूर्वजों का पूर्वज है, और अजन्मा होने से जिसके माता-पिता नहीं हैं, और सर्वज्ञ होने से सबके कर्मों को जानता है, हम उस जगदीश्वर की उपासना करके अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥१६॥
टिप्पणी
[सूचना−पदपाठ के लिये सूचना मन्त्र १२ देखो।]१६−(जातः) प्रकटः सन् (वि अख्यत्) वि अख्यातोऽभवत् (पित्रोः) अस्माकं मातापित्रोः (उपस्थे) समीपे (भुवः) भू सत्तायाम्-क्विप्। भवन्ति उत्पद्यन्ते सन्ताना यस्यां सा भूः। द्वितीयार्थे षष्ठी। भुवम्। जननीम् (न) निषेधे (वेद) जानाति (जनितुः) जनितारम्। जनकम् (परस्य) परम्। स्वस्माद् भिन्नम् (स्तविष्यमाणः) लृटः सद् वा। पा०३।३।१४। ष्टुञ् स्तुतौ-लृटः शानच्, कर्मणि प्रयोगः। स्तूयमानः (नो) न-उ। न इति सम्प्रत्यर्थे-निरु०७।३१। उ एवार्थे। इदानीमेव (यः) परमेश्वरः (अस्मत्) षष्ठ्यर्थे पञ्चमी। अस्माकम् (व्रता) व्रतानि। कर्माणि-निघ०२।१। (देवानाम्) विदुषां मध्ये। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
'स्वयम्भू' ब्रह्म
पदार्थ
१. (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ यह प्रभु (पित्रो: उपस्थे) = द्यावापृथिवी की गोद में (व्यख्यत्) = प्रकाशित होता है। द्यावापृथिवी में सर्वत्र उस प्रभु की महिमा का प्रकाश होता है। यह प्रभु (भुव:) = मातृभूत पृथिवी को तथा (परस्य जनितुः) = उत्कृष्ट पितृस्थानीय युलोक को (न वेद) = नहीं जानता, अर्थात् जैसे ये द्युलोक व पृथिवीलोक सबके माता व पिता के रूप में हैं, इसी प्रकार प्रभु के भी कोई 'माता व पिता हों' ऐसी बात नहीं। प्रभु सबके मातृपितृभूत पृथिवी व द्युलोक को जन्म देते हैं। प्रभु को जन्म देनेवाला कोई नहीं-वे 'स्वयम्भू' हैं। २. (यः) = जो (अस्मत्) = हमसे (स्तविष्यमाण:) = स्तुति किये जाते हुए (न:) = हमारे (व्रता) = कर्मों को (देवानाम्) = देवों के कर्म बना देते हैं। प्रभु स्तोता को दिव्य कोंवाला बनाते हैं। हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु 'इन्द्र' हैं।
भावार्थ
द्यावापृथिवी प्रभु की महिमा का प्रकाश करते हैं। प्रभु के कोई माता-पिता नहीं हैं। स्तोता को प्रभु दिव्य कर्मोंवाला बनाते हैं।
भाषार्थ
(पित्रोः) माता-पिता की (उपस्थे) गोद में खेलनेवाला (जातः) नवजात शिशु भी निज चेष्टाओं और हावभावों द्वारा मानो (व्यख्यत्) जिसके गुणों का कथन करता है, जो (परस्य) अपने से भिन्न किसी अन्य को (भुवः) पृथिवी का (जनितुः) जनयिता (न वेद) नहीं जानता, (यः) जो (अस्मत्) हम उपासकों से (स्तविष्यमाणः) स्तुति पाता हुआ (नः) हमें (वेद) जानता पहचानता है, जो (देवानाम्) सूर्य चन्द्र आदि सब दिव्य पदार्थों के (व्रता) कर्मों और गतिविधियों को (वेद) जानता है—(जनासः) हे प्रजाजनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।
विषय
इन्द्र परमेश्वर और राजा और आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(जातः) उत्पन्न बालक जिस प्रकार (पित्रोः उपस्थे) माता पिता दोनों के गोद में (व्यख्यत्) नाना प्रकार से अपने भाव प्रकट करता है और (भुवः) अपने उत्पन्न करनेहारी माता और (परस्य जनितुः) दूसरे उत्पादक पिता को भी नहीं जानता इसी प्रकार परमेश्वर भी (जातः) प्रादुर्भूत होकर (पित्रोः) पालन करने वाली पृथिवी और आकाश इन दो रूपों में (वि अख्यत्) विविध रूपों में दिखाई देता है। वह (भुवः) समस्त संसार के उत्पत्ति स्थान और (जनितुः) उत्पादक रूप से (परस्य) अपने से अन्य किसी दूसरे को (न वेद) नहीं जानता अर्थात् वही पृथ्वी के समान सर्वाश्रय पिता के समान सर्वोत्पादक है। और (यः) जो (स्तविष्यमाणः) स्तुति किया जाकर (नः) हमें (अस्मद्) हमारे और (देवानां व्रता) देव, दिव्य पदार्थ, सूर्य, वायु, अग्नि, जल, आकाशादि पदार्थों और विद्वानों और शरीरस्थ इन्द्रियों के (व्रताः) नियत, निश्चित धर्मों, कर्तव्यों और शक्तियों को (आ) प्रकट करता है। हे (जनासः) मनुष्यो ! (सः इन्द्रः) वह ‘इन्द’ है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘जातो व्यक्तः पित्रोरुपस्थे’, ‘लक्षत’, ‘व्यक्ष्यत्’, व्यक्षः, ‘जातो व्यरक्षन्’। (द्वि०) ‘भुवन वेदननिहु’। (तृ०) स्तविष्यमाणोऽन्नोजो अस्मद्, ‘स्तविष्यमाणोऽन्नो यो अस्मद्’ (च०) ‘वर्त्ता देवानां’ इति नाना पाठाः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। सामसूक्तम्। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
He that shines in the innocence of the new born baby and proclaims his presence in the partner’s lap, who knows no other creator of the world of existence than himself, and who, adored and celebrated by us, fulfils our obligations of piety to the divinities through ourselves, that is Indra.
Translation
As a born child manifests his activities in the lap of mother and father, he does not know his mother and father who is other than her (the mother) so Divine power manifest in the midst of heaven and earth makes all the worlds manifest in but does not have and even know His Mother and father (as He is eternal and unbigotten) and father and mother of all without being fathered and mothered, who being adored by learned he, O men, is Indra.
Translation
As a born child manifests his activities in the lap of mother and father, he does not know his mother and father who is other than her (the mother) so Divine power manifest in the midst of heaven and earth makes all the worlds manifest in but does not have and even know His Mother and father (as He is eternal and unbigotten) and father and mother of ail without being fathered and mothered, who being adored by learned he, O men, is Indra.
Translation
Just as the newly born baby gives expression to its various feelinas in the lap of its parents, but does not know its mother nor father; similarly being praised, God reveals to us the various laws, duties and powers of ours and the divine forces of nature (unknown to us). O men, He is the Almighty Father.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
[सूचना−पदपाठ के लिये सूचना मन्त्र १२ देखो।]१६−(जातः) प्रकटः सन् (वि अख्यत्) वि अख्यातोऽभवत् (पित्रोः) अस्माकं मातापित्रोः (उपस्थे) समीपे (भुवः) भू सत्तायाम्-क्विप्। भवन्ति उत्पद्यन्ते सन्ताना यस्यां सा भूः। द्वितीयार्थे षष्ठी। भुवम्। जननीम् (न) निषेधे (वेद) जानाति (जनितुः) जनितारम्। जनकम् (परस्य) परम्। स्वस्माद् भिन्नम् (स्तविष्यमाणः) लृटः सद् वा। पा०३।३।१४। ष्टुञ् स्तुतौ-लृटः शानच्, कर्मणि प्रयोगः। स्तूयमानः (नो) न-उ। न इति सम्प्रत्यर्थे-निरु०७।३१। उ एवार्थे। इदानीमेव (यः) परमेश्वरः (अस्मत्) षष्ठ्यर्थे पञ्चमी। अस्माकम् (व्रता) व्रतानि। कर्माणि-निघ०२।१। (देवानाम्) विदुषां मध्ये। अन्यत् पूर्ववत् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যিনি (জাতঃ) প্রকট হয়ে (পিত্রোঃ) [আমাদের] মাতা-পিতার (উপস্থে) সমীপে (বি অখ্যৎ) ব্যাখ্যাত হয়েছেন, এবং (পরস্য) [নিজের থেকে] অন্য (জনিতুঃ) জনক এবং (ভুবঃ) জননীকে (ন) না (বেদ) জানেন, এবং (দেবানাম্) বিদ্বানদের দ্বারা (স্তবিষ্যমাণঃ) স্তুত্য [যিনি] (নো) এখনই (অস্মৎ) আমাদের (ব্রতা) কর্মসমূহ [জানেন], (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর] ॥১৬॥
भावार्थ
যিনি অনাদি হওয়ায় আমাদের পূর্বপুরুষদেরও পূর্বপুরুষ, এবং অজন্মা হওয়ায় যার মাতা-পিতা নেই, এবং সর্বজ্ঞ হওয়ায় সকলের কর্মসমূহকে জানেন, আমরা সেই জগদীশ্বরের উপাসনা করে নিজের সামর্থ্য বৃদ্ধি করব ॥১৬॥ [সূচনা-পদপাঠের জন্য সূচনা মন্ত্র ১২ দেখো।]
भाषार्थ
(পিত্রোঃ) মাতা-পিতার (উপস্থে) কোলে ক্রীড়ারত (জাতঃ) নবজাত শিশুও নিজ প্রচেষ্টা এবং হাবভাব দ্বারা মানো (ব্যখ্যৎ) যার গুণ-সমূহের কথন করে, যিনি (পরস্য) নিজের থেকে ভিন্ন অন্য কাউকে (ভুবঃ) পৃথিবীর (জনিতুঃ) জনয়িতা (ন বেদ) জানেন না, (যঃ) যিনি (অস্মৎ) আমাদের [উপাসকদের] থেকে/দ্বারা (স্তবিষ্যমাণঃ) স্তুতি প্রাপ্ত করে (নঃ) আমাদের (বেদ) জানেন, যিনি (দেবানাম্) সূর্য চন্দ্র আদি সকল দিব্য পদার্থ-সমূহের (ব্রতা) কর্ম এবং গতিবিধি (বেদ) জানেন —(জনাসঃ) হে প্রজাগণ! (সঃ ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।
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