अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 14
द्यावा॑ चिदस्मै पृथि॒वी न॑मेते॒ शुष्मा॑च्चिदस्य॒ पर्व॑ता भयन्ते। यः सो॑म॒पा नि॑चि॒तो वज्र॑बाहु॒र्यो वज्र॑हस्तः॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । पृ॒थि॒वी इति॑ । न॒मे॒ते॒ इति॑ । शुष्मा॑त् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । पर्व॑ता: । भ॒य॒न्ते॒ । य: । सो॒म॒ऽपा: । नि॒ऽचि॒त: । वज्र॑बाहु: । य: । वज्र॑ऽहस्त: । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावा चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते। यः सोमपा निचितो वज्रबाहुर्यो वज्रहस्तः स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावा । चित् । अस्मै । पृथिवी इति । नमेते इति । शुष्मात् । चित् । अस्य । पर्वता: । भयन्ते । य: । सोमऽपा: । निऽचित: । वज्रबाहु: । य: । वज्रऽहस्त: । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(द्यावा पृथिवी) आकाश और भूमि (चित्) भी (अस्मै) इस [परमेश्वर] के लिये (नमेते) झुकते हैं, (अस्य) इसके (शुष्मात्) बल से (चित्) ही (पर्वताः) मेघ (भयन्ते) डरते हैं। (यः) जो (निचितः) भरपूर, (सोमपाः) ऐश्वर्य का रक्षक, (वज्रबाहुः) वज्रसमान भुजाओंवाला [दृढ़ शरीरवाले वीरसदृश] है और (यः) जो (वज्रहस्तः) वज्र हाथ में रखनेवाले [दृढ़ हथियारवाले शूर सदृश] है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥१४॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के नियम में सब बड़े-बड़े और छोटे-छोटे पदार्थ रहते हैं, वही महाबली हमारे ऐश्वर्य का रक्षक है, उसकी शरण में रहकर हम अपना कर्तव्य करें ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(द्यावा पृथिवी) छान्दसं व्यवधानम्। आकाशभूमिलोकौ (चित्) अपि (अस्मै) परमेश्वराय (नमेते) प्रह्वीभवतः (शुष्मात्) बलात् (चित्) एव (अस्य) परमेश्वस्य (पर्वताः) मेघाः (भयन्ते) छान्दसः शप् आत्मनेपदं च। बिभ्यति (यः) (सोमपाः) ऐश्वर्यरक्षकः-दयानन्दभाष्ये यजु०८।३४। (निचितः) चिञ् चयने-क्त। नितरां राशीकृतः। पूरितः (वज्रबाहुः) म०१३। (यः) (वज्रहस्तः) वज्रो दृढशस्त्रं हस्तयोर्यस्य स शूर इव। अन्यद् गतम् ॥
विषय
'ब्रह्माण्ड के शासक' प्रभु
पदार्थ
१. (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (द्यावापृथिवी चित्) = धद्युलोक व पृथिवीलोक भी नमते नमन करते हैं, अर्थात् ये सब इस प्रभु के शासन में चलते हैं। (अस्य) = इसके (शुष्मात्) = शत्रु-शोषक बल से (पर्वता:) = पर्वत भी भयन्ते भयभीत होते हैं, अर्थात् दृढ़-से-दृढ़ पर्वत को भी प्रभु विदीर्ण कर डालते हैं। २. (यः) = जो प्रभु (सोमपा:) = [सोम-उत्पन्न जगत्] उत्पन्न जगत् के रक्षक हैं। (निचित:) = [निकेति-to observe] सर्वद्रष्टा हैं। (वज्रबाहु:) = वनसदृश बाहुवाले हैं। कभी न थकनेवाली भुजाओंवाले, अर्थात् अत्यन्त शक्तिसम्पन्न हैं। यः जो वनहस्तः दुष्टों को दण्डित करने के लिए हाथ में वन लिये हुए हैं, हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्रः) = सब शत्रुओं के विद्रावक वे प्रभु ही 'इन्द्र' है |
भावार्थ
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रभु के शासन में है। वे प्रभु अनन्तशक्तिवाले व सर्वद्रष्टा हैं। दुष्टों को दण्डित करके ठीक मार्ग पर लानेवाले हैं।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी चित्) द्युलोक और भूलोक भी (अस्मै) इस परमेश्वर के प्रति (नमेते) नतमस्तक हैं। (अस्य) इस परमेश्वर के (शुष्मात्) शोषकबल से (पर्वताः चित्) पर्वत भी (भयन्ते) भयभीत रहते हैं, (यः) जो कि (सोमपाः) चन्द्रमा की भी रक्षा करता है। (निचितः) जीवन में नियमतः चिनी गई यह परमेश्वराग्नि (वज्रबाहुः) मानो वज्रधारी होकर (वज्रहस्तः) वज्र द्वारा पाप-पुञ्ज का हनन करता है, उसे भस्मीभूत कर देता है—(जनासः) हे प्रजाजनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।
टिप्पणी
[हस्तः=हन्तेः प्राशुर्हनने (निरु০ १.३.७)। निचितः=नि+चितः, यथा—अग्निचित्, अग्निचयन, अग्निचित्या, अर्थात् यज्ञाग्नि का चयन।]
विषय
इन्द्र परमेश्वर और राजा और आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी दोनों लोक (चित्) भी (अस्मै नमेते) इसके आगे झुकते हैं। और (अस्य शुष्मात् चित्) इसके बल से ही (पर्वताः भयन्ते) पर्वत, मेघ भी भय से कांपते हैं। (यः) जो (सोमपाः) समस्त जगत् का पालक या समस्त ऐश्वर्यों का पालक होकर (निचितः) सर्वत्र व्यापक (वज्रबाहुः) वज्र के समान सब को पापों से वर्जन करने में समर्थ बलशाली और (वज्रहस्तः) वारक बल से ही सबको दण्ड देने वाला है। हे (जनासः) मनुष्यो ! (सः इन्द्रः) वह इन्द्र, परमेश्वर है। राजा के पक्ष में—(द्यावापृथिवी) राजा प्रजा या नरनारी जिसके आगे झुकें, (पर्वताः) पालन शक्ति से युक्त ऊंचे पर्वत के समान बड़े भूमिपाल भी जिसके बल से कांपते हैं, वह (सोमपाः) राष्ट्र का भोक्ता (वज्रहस्तः वज्रबाहुः) वज्र के समान बलवान् बाहु वाला और खड्गहस्त होकर (निचितः) सुदृढ शरीर, संचित ऐश्वर्यवान् और बलवान् हो वह राजा ‘इन्द्र’ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। सामसूक्तम्। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Heaven and earth bow to him in homage. Clouds cower and mountains quake for fear of his power. He is the creator, preserver and promoter of the soma nectar and ecstasy of life, knowledge concentrate and power both, thunder-armed for punishment and protection, flower-handed with kusha grass for blessing and benediction. Such is Indra, lord of light and might and life of life, O children of the earth.
Translation
He—before whom, this one bow down the heaven and earth from whose, this ones’ own strength even clouds tremble, who is the preserver of this world, all-pervading holding thunder in cloud and atmosphere and who bears powers of -holding and supporting as strong as elctricity—O men is, Indra.
Translation
He—before whom, this one bow down the heaven and earth from whose, this ones’ own strength even clouds tremble, who is the preserver of this world, all-pervading holding thunder in cloud and atmosphere and who bears powers of holding and supporting as strong as electricity—O men is Indra.
Translation
The heavens and the earth bow to Him. From His power alone mountains and the clouds tremble with awe. O men, verily He is the Almighty Lord, Who is the Protector of the created world, ls All-pervading Smasher of all evils and Terrible Punisher of the wicked.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(द्यावा पृथिवी) छान्दसं व्यवधानम्। आकाशभूमिलोकौ (चित्) अपि (अस्मै) परमेश्वराय (नमेते) प्रह्वीभवतः (शुष्मात्) बलात् (चित्) एव (अस्य) परमेश्वस्य (पर्वताः) मेघाः (भयन्ते) छान्दसः शप् आत्मनेपदं च। बिभ्यति (यः) (सोमपाः) ऐश्वर्यरक्षकः-दयानन्दभाष्ये यजु०८।३४। (निचितः) चिञ् चयने-क्त। नितरां राशीकृतः। पूरितः (वज्रबाहुः) म०१३। (यः) (वज्रहस्तः) वज्रो दृढशस्त्रं हस्तयोर्यस्य स शूर इव। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ এবং ভূমি (চিৎ) ও (অস্মৈ) এই [পরমেশ্বরের] জন্য (নমেতে) নত হয়/নমন করে, (অস্য) এই [পরমেশ্বরের] (শুষ্মাৎ) শক্তি দ্বারা (চিৎ) ই (পর্বতাঃ) মেঘ (ভয়ন্তে) ভয় পায়।(যঃ) যিনি (নিচিতঃ) ভরপুর, (সোমপাঃ) ঐশ্বর্যের রক্ষক, (বজ্রবাহুঃ) বজ্রের ন্যায় বাহুযুক্ত [দৃঢ় শরীরধারী বীরসদৃশ] হন এবং (যঃ) যিনি (বজ্রহস্তঃ) বজ্রসমান বাহুসম্পন্ন [দৃঢ় অস্ত্রযুক্ত বীরসদৃশ] হন, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরয় ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর] ॥১৪॥
भावार्थ
যে পরমাত্মার নিয়মে সকল বড় ও ছোটো পদার্থ থাকে, সেই মহাবলশালী আমাদের ঐশ্বর্যের রক্ষক, সেই শরণে থেকে আমরা নিজের কর্তব্য করব ॥১৪॥
भाषार्थ
(দ্যাবাপৃথিবী চিৎ) দ্যুলোক এবং ভূলোকও (অস্মৈ) এই পরমেশ্বরের প্রতি (নমেতে) নতমস্তক। (অস্য) এই পরমেশ্বরের (শুষ্মাৎ) শোষকবল দ্বারা/থেকে (পর্বতাঃ চিৎ) পর্বতও (ভয়ন্তে) ভয়ভীত থাকে, (যঃ) যিনি (সোমপাঃ) চন্দ্রেরও রক্ষা করেন। (নিচিতঃ) জীবনে নিয়মতঃ নির্বাচিত এই পরমেশ্বরাগ্নি (বজ্রবাহুঃ) মানো বজ্রধারী হয়ে (বজ্রহস্তঃ) বজ্র দ্বারা পাপ-পুঞ্জের হনন করেন, তা ভস্মীভূত করেন—(জনাসঃ) হে প্রজাগণ! (সঃ ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।
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