अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
यं क्रन्द॑सी संय॒ती वि॒ह्वये॑ते॒ परेऽव॑र उ॒भया॑ अ॒मित्राः॑। स॑मा॒नं चि॒द्रथ॑मातस्थि॒वांसा॒ नाना॑ हवेते॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । क्रन्द॑सी॒ इति॑ । सं॒य॒ती इति॑ स॒म्ऽय॒ती । वि॒ह्वये॑ते॒ इति॑ । वि॒ऽह्वये॑ते । परे॑ । अव॑रे । उ॒भया॑: । अ॒मित्रा॑: ॥ स॒मा॒नम् । चि॒त् । रथ॑म् । आ॒त॒स्थि॒ऽवांसा॑ । नाना॑ । ह॒वे॒ते॒ इति॑ । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्राः। समानं चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । क्रन्दसी इति । संयती इति सम्ऽयती । विह्वयेते इति । विऽह्वयेते । परे । अवरे । उभया: । अमित्रा: ॥ समानम् । चित् । रथम् । आतस्थिऽवांसा । नाना । हवेते इति । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
विषय - सर्वाराध्य प्रभु
पदार्थ -
१. हे (जनास:) = लोगो! (इन्द्रः सः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं, (यम्) = जिनको (संयती) = सम्यक् गति करते हुए (क्रन्दसी) = परस्पर आह्वान सा करनेवाने ये द्यावापृथिवी (विह्वयेते) = विविध रूपों में पुकारते हैं। द्युलोक से पृथिवीलोक तक निवास करनेवाले सब प्राणी प्रभु को ही पुकारते हैं। २. (परे) = उत्कृष्ट मोक्षमार्ग पर चलनेवाले निष्काम कर्मयोगी भी प्रभु का आराधन करते हैं और (अवरे) = सकाम कर्म-मार्ग पर चलनेवाले ये निचली श्रेणी के व्यक्ति भी प्रभु को ही पुकारते हैं। ३. (उभयाः अमित्रा:) = रणाङ्गण में एक-दूसरे के विरुद्ध मोर्चों को लगाये हुए ये दोनों शत्रु-सैन्य भी विजय के लिए उस प्रभु को ही पुकराते हैं। ४. (चित्) = निश्चय से (समानं रथम) = समान ही गृहस्थरूप रथ पर (आतस्थिवांसा) = स्थित पति-पत्नी भी (नाना हवेते) = भिन्न-भिन्न रूपों में उस प्रभु का ही आराधन करते हैं। पति उचित धन के लिए आराधन करता है तो पत्नी गृह को सुचारुरूपेण चला सकने के लिए याचना करती है।
भावार्थ - सब संसार प्रभु का ही आराधन करता है। प्रभु से ही उस-उस कामना को प्रात करता है लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान् ।
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