अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 12
यः श॑म्ब॑रं प॒र्यत॑र॒त्कसी॑भि॒र्योऽचा॑रुका॒स्नापि॑बत्सु॒तस्य॑। अ॒न्तर्गि॒रौ यज॑मानं ब॒हुं जनं॒ यस्मि॒न्नामू॑र्छ॒त्स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । शम्ब॑रम् । परि॑ । अत॑र॒त् । क॑सीभि॒: । य: । अचा॑रु । का॒स्ना । अपि॑बत् । सु॒तस्य॑ ॥ अ॒न्त: । गि॒रौ । यज॑मानम् । ब॒हुम् । जन॒म् । यस्मि॑न् । आमू॑र्च्छ॒त् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शम्बरं पर्यतरत्कसीभिर्योऽचारुकास्नापिबत्सुतस्य। अन्तर्गिरौ यजमानं बहुं जनं यस्मिन्नामूर्छत्स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । शम्बरम् । परि । अतरत् । कसीभि: । य: । अचारु । कास्ना । अपिबत् । सुतस्य ॥ अन्त: । गिरौ । यजमानम् । बहुम् । जनम् । यस्मिन् । आमूर्च्छत् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 12
विषय - 'अचारुक-आस्ना'
पदार्थ -
१. (यः) = जो (कसीभिः) = गतिशीलताओं के द्वारा-निरन्तर कर्म में लगे रहने के द्वारा (शम्बरं) = शान्ति के विनाशक ईष्या नामक असुर को (पर्यतरत्) = [पर्यतारयत् सा०] पार करने में तैर जाने में हमें समर्थ करता है। प्रभु हमें निरन्तर क्रियाओं में प्रेरित करके ईष्या से ऊपर उठाते हैं। अकर्मण्य लोग ही ईर्ष्या-द्वेष में फँसते हैं। २. वे प्रभु ही वस्तुत: (अचारुक-आस्ना) = सदा न चरते रहनेवाले मुख से (सुतस्य अपिबत्) = उत्पन्न हुए-हुए सोम का पान करते हैं। प्रभु उपासक को जिला के संयम के द्वारा सोम के रक्षण के योग्य बनाते हैं। भोजन का संयम हमें ब्रह्मचर्य पालन में समर्थ करता है। ३. (यस्मिन्) = जिस सोम का रक्षण होने पर (गिरौ अन्त:) = [आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः] आचार्य गर्भ [गिरि गुरु] के अन्दर निवास करते हुए (यजमानम्) = देवपूजन करते हुए-बड़ों का आदर करते हुए (बहुं जनम्) = बहुत लोगों को जो (आमूर्छत्) = [Strengthens] शक्ति देता है, हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्रः) = वही परमैश्वर्यशाली प्रभु है। आचार्यकुल में निवास करते हुए विनीत ब्रह्मचारियों को प्रभु ही वृद्धि प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - क्रियाशील बनाकर प्रभु हमें ईया से ऊपर उठाते हैं। जिला-संयम के द्वारा सोम रक्षण के योग्य बनाते हैं। आचार्यकुलवासी ब्रह्मचारियों को प्रभु ही उन्नति प्राप्त कराते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें